फिरते थे आरज़ू में कभी तेरी दर-बदर ,
अब आ पड़ी मियां की जूती मियां के सर .
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लगती थी तुम गुलाब हमको यूँ दरअसल ,
करते ही निकाह तुमसे काँटों से भरा घर .
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पहले हमारे फाके निभाने के थे वादे ,
अब मेरी जान खाकर तुम पेट रही भर .
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कहती थी मेरे अपनों को अपना तुम समझोगी ,
अब उनको मार ताने घर से किया बेघर .
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पहले तो सिर को ढककर पैर बड़ों के छूती ,
अब फिरती हो मुंह खोले न रहा कोई डर .
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माँ देती है औलाद को तहज़ीब की दौलत ,
मक्कारी से तुमने ही उनको किया है तर .
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औरत के बिना सूना घर कहते तो सभी हैं ,
औरत ने ही बिगाड़े दुनिया में कितने नर .
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माँ-पिता,बहन-भाई हिल-मिल के साथ रहते ,
आये जो बाहरवाली होती खटर-पटर .
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जीना है जो ख़ुशी से अच्छा अकेले रहना ,
''शालिनी ''चाहे मर्दों के यूँ न कटें पर .
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शालिनी कौशिक
[WOMAN ABOUT MAN]
5 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (19-12-13) को टेस्ट - दिल्ली और जोहांसबर्ग का ( चर्चा - 1466 ) में "मयंक का कोना" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जीना है जो ख़ुशी से अच्छा अकेले रहना ,
''शालिनी ''चाहे मर्दों के यूँ न कटें पर .
नेक ख्वाहिश है.
ऐ वारफ्ते-जाँ रस्मे-वफ़ा से पूछ लेते..,
यह कहने के अव्वल वालिदा से पूछ लेते.....
वारफ्ते-जाँ = सुध बुध भुला हुवा शख्स
खैरख्वाहों ने समझाईं दुष्वारियां बहुत
लड्डू है ये ऐसा बिन खाये नहीं सबर...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट "समय की भी उम्र होती है",पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।
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