बजरिये बख्शीश-ए-लोहा ,सोयी जनता जगायेंगे .
फिर एक नयी इबारत गढ़ ,साथ सबको ले आयेंगे .
भले ही दृढ इरादों ने ,उन्हें लौह-पुरुष बनाया था ,
ढालकर उनको मूरत में ,लोहा तो ये दिलवाएंगे .
मिटटी के लौंदे में लिपटे ,वे तो साधारण मानव थे .
महज़ लोहमय शख्सियत को ,लोहसार ये बनायेंगे .
मुखालिफ ने लगायी थी ,शहर में खुद की ही मूरत .
उसने खुद दम पर था खाया ,ये दूजे का खा जायेंगे .
उड़ायें ये मखौल उनके ,जो बनके लग गए हैं मूरत .
भला खुद बनवाये बुत की ,हंसी को रोक पाएंगे .
न खाने को हैं दो रोटी ,न तन ढकने को हैं कपडे .
ऐसे में इन इरादों से ,क्या जीवन ये दे पाएंगे .
फैलसूफी में अपनी ये ,रहनुमा बनने आये हैं .
राहजनी खुलेआम करके ,उड़नछू ये हो जायेंगे .
रियाया अपनी समझकर ,रियायत ऐसे करते हैं .
साँस की एवज में लोहा ,ये सबसे लेकर जायेंगे .
बघंबर पहनकर आये ,असल में ये हैं सौदागर .
''शालिनी''ही नहीं इनको ,सभी पहचान जायेंगे .
शब्दार्थ:-बजरिये-के द्वारा ,बख्शीस-दान,लोहसार -फौलाद,इस्पात ,फैलसूफी-धूर्तता ,रियाया -प्रजा ,रियायत-मेहरबानी ,बघंबर-बाघ की खाल
शालिनी कौशिक