जमाना है तिजारत का, तिजारत ही तिजारत है
तिजारत में सियासत है, सियासत में तिजारत है
ज़माना अब नहीं, ईमानदारी का सचाई का
खनक को देखते ही, हो गया ईमान ग़ारत है
हुनर बाज़ार में बिकता, इल्म की बोलियाँ लगतीं
वजीरों का वतन है ये, दलालों का ही भारत है
प्रजा के तन्त्र में कोई, नहीं सुनता प्रजा की है
दिखाने को लिखी मोटे हरफ में बस इबारत है
हवा का एक झोंका ही धराशायी बना देगा
खड़ी है खोखली बुनियाद पर ऊँची इमारत है
लगा है घुन नशेमन में, फक़त अब “रूप” है बाकी
लगी अन्धों की महफिल है, औ’ कानों की सदारत है
5 comments:
बहुत ख़ूब.
आपने सही कहा है कि
जमाना है तिजारत का, तिजारत ही तिजारत है
तिजारत में सियासत है, सियासत में तिजारत है
बहुत प्यारी रचना.
wah! ustad wah!
हवा का एक झोंका ही धराशायी बना देगा
खड़ी है खोखली बुनियाद पर ऊँची इमारत है
बहुत खूब । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा ।धन्यवाद ।
सुन्दर प्रस्तुति...हार्दिक बधाई...
Post a Comment