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मुशायरा::: नॉन-स्टॉप

Monday, April 16, 2012

तिजारत ही तिजारत है


जमाना है तिजारत का, तिजारत ही तिजारत है
तिजारत में सियासत है, सियासत में तिजारत है

ज़माना अब नहीं, ईमानदारी का सचाई का
खनक को देखते ही, हो गया ईमान ग़ारत है

हुनर बाज़ार में बिकता, इल्म की बोलियाँ लगतीं
वजीरों का वतन है ये, दलालों का ही भारत है

प्रजा के तन्त्र में कोई, नहीं सुनता प्रजा की है
दिखाने को लिखी मोटे हरफ में बस इबारत है

हवा का एक झोंका ही धराशायी बना देगा
खड़ी है खोखली बुनियाद पर ऊँची इमारत है

लगा है घुन नशेमन में, फक़त अब “रूप” है बाकी
लगी अन्धों की महफिल है, औ’ कानों की सदारत है

5 comments:

DR. ANWER JAMAL said...

बहुत ख़ूब.
आपने सही कहा है कि
जमाना है तिजारत का, तिजारत ही तिजारत है
तिजारत में सियासत है, सियासत में तिजारत है

Santosh Pidhauli said...

बहुत प्यारी रचना.

bhagat said...

wah! ustad wah!

प्रेम सरोवर said...

हवा का एक झोंका ही धराशायी बना देगा
खड़ी है खोखली बुनियाद पर ऊँची इमारत है

बहुत खूब । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा ।धन्यवाद ।

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

सुन्दर प्रस्तुति...हार्दिक बधाई...