उनके तो दिल से नक़्शे-कुदूरत[1] भी मिट गया।
हम शाद[2] हैं कि दिल में कुदूरत नहीं रही॥

ज़िन्दगी ख़ुद क्या ‘फ़ानी’ यह तो क्या कहिये मगर।
मौत कहते हैं जिसे वो ज़िन्दगी का होश है॥

न दिल के ज़्रर्फ़ को[3] देखो तूर[4] को देखो।
बला की धुन है तुम्हें बिजलियाँ गिराने की॥

कल तक जो तुम से कह न सका हाले-इज़्तराब[5]।
मिलती है आज उसकी ख़बर इज़्तराब से॥

मुद्दआ़ है कि मुद्दआ़ न कहूँ।
पूछते हैं कि मुद्दआ़ क्या है?॥

दुश्मने-जाँ थे तो जाने-मुद्दआ़ क्यों हो गये?
तुम किसी की ज़िन्दगी का आसरा क्यों हो गये?

ज़िन्दगी यादे-दोस्त है यानी--
ज़िन्दगी है तो ग़म में गुज़रेगी॥

शब्दार्थ:
↑ द्वेष भाव
↑ प्रसन्न
↑ पात्रता को
↑ एक पर्वत का नाम
↑ तड़प की खबर
हम शाद[2] हैं कि दिल में कुदूरत नहीं रही॥
ज़िन्दगी ख़ुद क्या ‘फ़ानी’ यह तो क्या कहिये मगर।
मौत कहते हैं जिसे वो ज़िन्दगी का होश है॥
न दिल के ज़्रर्फ़ को[3] देखो तूर[4] को देखो।
बला की धुन है तुम्हें बिजलियाँ गिराने की॥
कल तक जो तुम से कह न सका हाले-इज़्तराब[5]।
मिलती है आज उसकी ख़बर इज़्तराब से॥
मुद्दआ़ है कि मुद्दआ़ न कहूँ।
पूछते हैं कि मुद्दआ़ क्या है?॥
दुश्मने-जाँ थे तो जाने-मुद्दआ़ क्यों हो गये?
तुम किसी की ज़िन्दगी का आसरा क्यों हो गये?
ज़िन्दगी यादे-दोस्त है यानी--
ज़िन्दगी है तो ग़म में गुज़रेगी॥
शब्दार्थ:
↑ द्वेष भाव
↑ प्रसन्न
↑ पात्रता को
↑ एक पर्वत का नाम
↑ तड़प की खबर
-
Tanvi - Very Important Person
- Posts: 3702
- Joined: Tue Mar 30, 2010 2:15 pm
- Location: India
- Has thanked: 39 times
- Have thanks: 27 times
Re: fanni badayuni sahab ki kuch gazlein va shayari
बहार लाई है पैग़ामे-इनक़लाबे-बहार।
समझ रहा हूँ मैं कलियों के मुसकराने को॥

काफ़िर सूरत देख के मुँह से आह निकल ही जाती है।
कहते क्या हो? अब कोई अल्लाह का यूँ भी नाम न लें॥

गो नहीं जुज़-तर्के-हसरत[1] दर्दे-हस्ती का[2] इलाज।
आह! वो बीमार जो आज़ुर्द-ए-परहेज़[3] है॥

अहले-ख़िरद में[4] इश्क़ की रुसवाइयाँ न पूछ।
आने लगी है ज़िक्रे-वफ़ा से हया मुझे॥

यारब! नवाये-दिल से[5] तो कान आशना-से[6] हैं।
आवाज़ आ रही है ये कब की सुनी हुई॥

शब्दार्थ:
↑ अभिलाषाओं के त्याग के अतिरिक्त
↑ जीवन व्यथा का
↑ परहेज़ करते करते दुखी
↑ अक़्लमंदों में
↑ दिल की आवाज़ से
↑ परिचित से
समझ रहा हूँ मैं कलियों के मुसकराने को॥
काफ़िर सूरत देख के मुँह से आह निकल ही जाती है।
कहते क्या हो? अब कोई अल्लाह का यूँ भी नाम न लें॥
गो नहीं जुज़-तर्के-हसरत[1] दर्दे-हस्ती का[2] इलाज।
आह! वो बीमार जो आज़ुर्द-ए-परहेज़[3] है॥
अहले-ख़िरद में[4] इश्क़ की रुसवाइयाँ न पूछ।
आने लगी है ज़िक्रे-वफ़ा से हया मुझे॥
यारब! नवाये-दिल से[5] तो कान आशना-से[6] हैं।
आवाज़ आ रही है ये कब की सुनी हुई॥
शब्दार्थ:
↑ अभिलाषाओं के त्याग के अतिरिक्त
↑ जीवन व्यथा का
↑ परहेज़ करते करते दुखी
↑ अक़्लमंदों में
↑ दिल की आवाज़ से
↑ परिचित से
-
Tanvi - Very Important Person
- Posts: 3702
- Joined: Tue Mar 30, 2010 2:15 pm
- Location: India
- Has thanked: 39 times
- Have thanks: 27 times
Re: fanni badayuni sahab ki kuch gazlein va shayari
जी ढूँढता है घर कोई दोनों जहाँ से दूर
इस आपकी ज़मीं से अलग, आस्माँ से दूर
शायद मैं दरख़ुर-ए-निगह-ए-गर्म भी नहीं
बिजली तड़प रही है मेरे आशियाँ से दूर
आँखें चुराके आपने अफ़साना कर दिया
जो हाल था ज़बाँ से क़रीब और बयाँ से दूर
ता अर्ज़-ए-शौक़ में न रहे बन्दगी की लाग
इक सज्दा चाहता हूँ तेरी आस्तां से दूर
है मना राह-ए-इश्क़ में दैर-ओ-हरम का होश
यानि कहाँ से पास है मन्ज़िल, कहाँ से दूर
इस आपकी ज़मीं से अलग, आस्माँ से दूर
शायद मैं दरख़ुर-ए-निगह-ए-गर्म भी नहीं
बिजली तड़प रही है मेरे आशियाँ से दूर
आँखें चुराके आपने अफ़साना कर दिया
जो हाल था ज़बाँ से क़रीब और बयाँ से दूर
ता अर्ज़-ए-शौक़ में न रहे बन्दगी की लाग
इक सज्दा चाहता हूँ तेरी आस्तां से दूर
है मना राह-ए-इश्क़ में दैर-ओ-हरम का होश
यानि कहाँ से पास है मन्ज़िल, कहाँ से दूर
-
Tanvi - Very Important Person
- Posts: 3702
- Joined: Tue Mar 30, 2010 2:15 pm
- Location: India
- Has thanked: 39 times
- Have thanks: 27 times
Re: fanni badayuni sahab ki kuch gazlein va shayari
देख 'फ़ानी' वोह तेरी तदबीर की मैयत[1] न हो।
इक जनाज़ा[2] जा रहा है दोश पर[3] तक़दीर के।।

या रब ! तेरी रहमत से मायूस नहीं 'फ़ानी'।
लेकिन तेरी रहमत की ताख़ीर[4] को क्या कहिए।।

हर मुज़दए-निगाहे-ग़लत जलवा ख़ुदफ़रेब।
आलम दलीले गुमरहीए-चश्मोगोश था।।

तजल्लियाते-वहम हैं मुशाहिदाते-आबो-गिल।
करिश्मये-हयात है ख़याल, वोह भी ख़वाब का।।

एक मुअ़म्मा है समझने का न समझाने का।
ज़िन्दगी काहे को है? ख़वाब है दीवाने का।।

है कि 'फ़ानी' नहीं है क्या कहिए।
राज़ है बेनियाज़े-महरमे-राज़।।

हूँ, मगर क्या यह कुछ नहीं मालूम।
मेरी हस्ती है ग़ैब की आवाज़।।

बहला न दिल, न तीरगीये-शामे-ग़म गई।
यह जानता तो आग लगाता न घर को मैं।।

वोह पाये-शौक़ दे कि जहत आश्ना न हो।
पूछूँ न ख़िज़्र से भी कि जाऊँ किधर को मैं।।

याँ मेरे क़दम से है वीराने की आबादी।
वाँ घर में ख़ुदा रक्खे आबाद है वीरानी।।

तामीरे-आशियाँ की हविस का है नाम बर्क़।
जब हमने कोई शाख़ चुनी शाख़ जल गई।।

अपनी तो सारी उम्र ही 'फ़ानी' गुज़ार दी।
इक मर्गे-नागहाँ के ग़मे इन्तज़ार ने।।

'फ़ानी'को या जुनूँ है या तेरी आरज़ू है।
कल नाम लेके तेरा दीवानावार रोया।।

नाला क्या? हाँ इक धुआँ-सा शामे-हिज्र।
बिस्तरे-बीमार से उट्ठा किया।।

आया है बादे-मुद्दत बिछुड़े हुए मिले हैं।
दिल से लिपट-लिपट कर ग़म बार-बार रोया?

नाज़ुक है आज शायद, हालत मरीज़े-ग़म की।
क्या चारागर ने समझा, क्यों बार-बार रोया।।

ग़म के टहोके कुछ हों बला से, आके जगा तो जाते हैं।
हम हैं मगर वो नींद के माते जागते ही सो जाते हैं।।

महबे-तमाशा हूँ मैं या रब! या मदहोशे-तमाशा हूँ।
उसने कब का फेर लिया मुँह अब किसका मुँह तकता हूँ।।

गो हस्ती थी ख़्वाबे-परीशाँ नींद कुछ ऎसी गहरी थी।
चौंक उठे थे हम घबराकर फिर भी आँख न खुलती थी।।

फ़स्ले-गुल आई,या अजल आई, क्यों दरे ज़िन्दाँ खुलता है?
क्या कोई वहशी और आ पहुँचा या कोई क़ैदी छूट गया।।

या कहते थे कुछ कहते, जब उसने कहा-- "कहिए"।
तो चुप हैं कि क्या कहिए, खुलती है ज़बाँ कोई?

दैर में या हरम में गुज़रेगी।
उम्र तेरी ही ग़म में गुज़रेगी।।

देख 'फ़ानी' वोह तेरी तदबीर की मैयत[1] न हो।
इक जनाज़ा[2] जा रहा है दोश पर[3] तक़दीर के।।

या रब ! तेरी रहमत से मायूस नहीं 'फ़ानी'।
लेकिन तेरी रहमत की ताख़ीर[4] को क्या कहिए।।

हर मुज़दए-निगाहे-ग़लत जलवा ख़ुदफ़रेब।
आलम दलीले गुमरहीए-चश्मोगोश था।।

तजल्लियाते-वहम हैं मुशाहिदाते-आबो-गिल।
करिश्मये-हयात है ख़याल, वोह भी ख़वाब का।।

एक मुअ़म्मा है समझने का न समझाने का।
ज़िन्दगी काहे को है? ख़वाब है दीवाने का।।

है कि 'फ़ानी' नहीं है क्या कहिए।
राज़ है बेनियाज़े-महरमे-राज़।।

हूँ, मगर क्या यह कुछ नहीं मालूम।
मेरी हस्ती है ग़ैब की आवाज़।।

बहला न दिल, न तीरगीये-शामे-ग़म गई।
यह जानता तो आग लगाता न घर को मैं।।

वोह पाये-शौक़ दे कि जहत आश्ना न हो।
पूछूँ न ख़िज़्र से भी कि जाऊँ किधर को मैं।।

याँ मेरे क़दम से है वीराने की आबादी।
वाँ घर में ख़ुदा रक्खे आबाद है वीरानी।।

तामीरे-आशियाँ की हविस का है नाम बर्क़।
जब हमने कोई शाख़ चुनी शाख़ जल गई।।

अपनी तो सारी उम्र ही 'फ़ानी' गुज़ार दी।
इक मर्गे-नागहाँ के ग़मे इन्तज़ार ने।।

'फ़ानी'को या जुनूँ है या तेरी आरज़ू है।
कल नाम लेके तेरा दीवानावार रोया।।

नाला क्या? हाँ इक धुआँ-सा शामे-हिज्र।
बिस्तरे-बीमार से उट्ठा किया।।

आया है बादे-मुद्दत बिछुड़े हुए मिले हैं।
दिल से लिपट-लिपट कर ग़म बार-बार रोया?

नाज़ुक है आज शायद, हालत मरीज़े-ग़म की।
क्या चारागर ने समझा, क्यों बार-बार रोया।।

ग़म के टहोके कुछ हों बला से, आके जगा तो जाते हैं।
हम हैं मगर वो नींद के माते जागते ही सो जाते हैं।।

महबे-तमाशा हूँ मैं या रब! या मदहोशे-तमाशा हूँ।
उसने कब का फेर लिया मुँह अब किसका मुँह तकता हूँ।।

गो हस्ती थी ख़्वाबे-परीशाँ नींद कुछ ऎसी गहरी थी।
चौंक उठे थे हम घबराकर फिर भी आँख न खुलती थी।।

फ़स्ले-गुल आई,या अजल आई, क्यों दरे ज़िन्दाँ खुलता है?
क्या कोई वहशी और आ पहुँचा या कोई क़ैदी छूट गया।।

या कहते थे कुछ कहते, जब उसने कहा-- "कहिए"।
तो चुप हैं कि क्या कहिए, खुलती है ज़बाँ कोई?

दैर में या हरम में गुज़रेगी।
उम्र तेरी ही ग़म में गुज़रेगी।।
शब्दार्थ:
↑ अर्थी
↑ शव
↑ कंधे पर
↑ देरी, विलम्ब
इक जनाज़ा[2] जा रहा है दोश पर[3] तक़दीर के।।
या रब ! तेरी रहमत से मायूस नहीं 'फ़ानी'।
लेकिन तेरी रहमत की ताख़ीर[4] को क्या कहिए।।
हर मुज़दए-निगाहे-ग़लत जलवा ख़ुदफ़रेब।
आलम दलीले गुमरहीए-चश्मोगोश था।।
तजल्लियाते-वहम हैं मुशाहिदाते-आबो-गिल।
करिश्मये-हयात है ख़याल, वोह भी ख़वाब का।।
एक मुअ़म्मा है समझने का न समझाने का।
ज़िन्दगी काहे को है? ख़वाब है दीवाने का।।
है कि 'फ़ानी' नहीं है क्या कहिए।
राज़ है बेनियाज़े-महरमे-राज़।।
हूँ, मगर क्या यह कुछ नहीं मालूम।
मेरी हस्ती है ग़ैब की आवाज़।।
बहला न दिल, न तीरगीये-शामे-ग़म गई।
यह जानता तो आग लगाता न घर को मैं।।
वोह पाये-शौक़ दे कि जहत आश्ना न हो।
पूछूँ न ख़िज़्र से भी कि जाऊँ किधर को मैं।।
याँ मेरे क़दम से है वीराने की आबादी।
वाँ घर में ख़ुदा रक्खे आबाद है वीरानी।।
तामीरे-आशियाँ की हविस का है नाम बर्क़।
जब हमने कोई शाख़ चुनी शाख़ जल गई।।
अपनी तो सारी उम्र ही 'फ़ानी' गुज़ार दी।
इक मर्गे-नागहाँ के ग़मे इन्तज़ार ने।।
'फ़ानी'को या जुनूँ है या तेरी आरज़ू है।
कल नाम लेके तेरा दीवानावार रोया।।
नाला क्या? हाँ इक धुआँ-सा शामे-हिज्र।
बिस्तरे-बीमार से उट्ठा किया।।
आया है बादे-मुद्दत बिछुड़े हुए मिले हैं।
दिल से लिपट-लिपट कर ग़म बार-बार रोया?
नाज़ुक है आज शायद, हालत मरीज़े-ग़म की।
क्या चारागर ने समझा, क्यों बार-बार रोया।।
ग़म के टहोके कुछ हों बला से, आके जगा तो जाते हैं।
हम हैं मगर वो नींद के माते जागते ही सो जाते हैं।।
महबे-तमाशा हूँ मैं या रब! या मदहोशे-तमाशा हूँ।
उसने कब का फेर लिया मुँह अब किसका मुँह तकता हूँ।।
गो हस्ती थी ख़्वाबे-परीशाँ नींद कुछ ऎसी गहरी थी।
चौंक उठे थे हम घबराकर फिर भी आँख न खुलती थी।।
फ़स्ले-गुल आई,या अजल आई, क्यों दरे ज़िन्दाँ खुलता है?
क्या कोई वहशी और आ पहुँचा या कोई क़ैदी छूट गया।।
या कहते थे कुछ कहते, जब उसने कहा-- "कहिए"।
तो चुप हैं कि क्या कहिए, खुलती है ज़बाँ कोई?
दैर में या हरम में गुज़रेगी।
उम्र तेरी ही ग़म में गुज़रेगी।।
देख 'फ़ानी' वोह तेरी तदबीर की मैयत[1] न हो।
इक जनाज़ा[2] जा रहा है दोश पर[3] तक़दीर के।।
या रब ! तेरी रहमत से मायूस नहीं 'फ़ानी'।
लेकिन तेरी रहमत की ताख़ीर[4] को क्या कहिए।।
हर मुज़दए-निगाहे-ग़लत जलवा ख़ुदफ़रेब।
आलम दलीले गुमरहीए-चश्मोगोश था।।
तजल्लियाते-वहम हैं मुशाहिदाते-आबो-गिल।
करिश्मये-हयात है ख़याल, वोह भी ख़वाब का।।
एक मुअ़म्मा है समझने का न समझाने का।
ज़िन्दगी काहे को है? ख़वाब है दीवाने का।।
है कि 'फ़ानी' नहीं है क्या कहिए।
राज़ है बेनियाज़े-महरमे-राज़।।
हूँ, मगर क्या यह कुछ नहीं मालूम।
मेरी हस्ती है ग़ैब की आवाज़।।
बहला न दिल, न तीरगीये-शामे-ग़म गई।
यह जानता तो आग लगाता न घर को मैं।।
वोह पाये-शौक़ दे कि जहत आश्ना न हो।
पूछूँ न ख़िज़्र से भी कि जाऊँ किधर को मैं।।
याँ मेरे क़दम से है वीराने की आबादी।
वाँ घर में ख़ुदा रक्खे आबाद है वीरानी।।
तामीरे-आशियाँ की हविस का है नाम बर्क़।
जब हमने कोई शाख़ चुनी शाख़ जल गई।।
अपनी तो सारी उम्र ही 'फ़ानी' गुज़ार दी।
इक मर्गे-नागहाँ के ग़मे इन्तज़ार ने।।
'फ़ानी'को या जुनूँ है या तेरी आरज़ू है।
कल नाम लेके तेरा दीवानावार रोया।।
नाला क्या? हाँ इक धुआँ-सा शामे-हिज्र।
बिस्तरे-बीमार से उट्ठा किया।।
आया है बादे-मुद्दत बिछुड़े हुए मिले हैं।
दिल से लिपट-लिपट कर ग़म बार-बार रोया?
नाज़ुक है आज शायद, हालत मरीज़े-ग़म की।
क्या चारागर ने समझा, क्यों बार-बार रोया।।
ग़म के टहोके कुछ हों बला से, आके जगा तो जाते हैं।
हम हैं मगर वो नींद के माते जागते ही सो जाते हैं।।
महबे-तमाशा हूँ मैं या रब! या मदहोशे-तमाशा हूँ।
उसने कब का फेर लिया मुँह अब किसका मुँह तकता हूँ।।
गो हस्ती थी ख़्वाबे-परीशाँ नींद कुछ ऎसी गहरी थी।
चौंक उठे थे हम घबराकर फिर भी आँख न खुलती थी।।
फ़स्ले-गुल आई,या अजल आई, क्यों दरे ज़िन्दाँ खुलता है?
क्या कोई वहशी और आ पहुँचा या कोई क़ैदी छूट गया।।
या कहते थे कुछ कहते, जब उसने कहा-- "कहिए"।
तो चुप हैं कि क्या कहिए, खुलती है ज़बाँ कोई?
दैर में या हरम में गुज़रेगी।
उम्र तेरी ही ग़म में गुज़रेगी।।
शब्दार्थ:
↑ अर्थी
↑ शव
↑ कंधे पर
↑ देरी, विलम्ब
-
Tanvi - Very Important Person
- Posts: 3702
- Joined: Tue Mar 30, 2010 2:15 pm
- Location: India
- Has thanked: 39 times
- Have thanks: 27 times
Re: fanni badayuni sahab ki kuch gazlein va shayari
करवाँ गुज़रा किया हम रहगुज़र[1] देखा किये
हर क़दम पर नक़्श-ए-पा-ए- राहबर[2] देखा किये
यास जब छाई उम्मीदें हाथ मल कर रह गईं
दिल की नब्ज़ें छुट गयीं और चारागर[3] देखा किये
रुख़[4] मेरी जानिब[5] निगाह-ए-लुत्फ़[6] दुश्मन की तरफ़
यूँ उधर देखा किये गोया[7] इधर देखा किये
दर्द-मंदाने-वफ़ा की हाये रे मजबूरियाँ
दर्दे-दिल देखा न जाता था मगर देखा किये
तू कहाँ थी ऐ अज़ल[8] ! ऐ नामुरादों की मुराद !
मरने वाले राह तेरी उम्र भर देखा किये
शब्दार्थ:
↑ पथ
↑ नेतृत्व करने वाले के पद-चिह्न
↑ उपचारक
↑ चेहरा
↑ ओर्
↑ आनंद-दायक दृष्टि
↑ जैसे कि
↑ मृत्यु
हर क़दम पर नक़्श-ए-पा-ए- राहबर[2] देखा किये
यास जब छाई उम्मीदें हाथ मल कर रह गईं
दिल की नब्ज़ें छुट गयीं और चारागर[3] देखा किये
रुख़[4] मेरी जानिब[5] निगाह-ए-लुत्फ़[6] दुश्मन की तरफ़
यूँ उधर देखा किये गोया[7] इधर देखा किये
दर्द-मंदाने-वफ़ा की हाये रे मजबूरियाँ
दर्दे-दिल देखा न जाता था मगर देखा किये
तू कहाँ थी ऐ अज़ल[8] ! ऐ नामुरादों की मुराद !
मरने वाले राह तेरी उम्र भर देखा किये
शब्दार्थ:
↑ पथ
↑ नेतृत्व करने वाले के पद-चिह्न
↑ उपचारक
↑ चेहरा
↑ ओर्
↑ आनंद-दायक दृष्टि
↑ जैसे कि
↑ मृत्यु
-
Tanvi - Very Important Person
- Posts: 3702
- Joined: Tue Mar 30, 2010 2:15 pm
- Location: India
- Has thanked: 39 times
- Have thanks: 27 times
Re: fanni badayuni sahab ki kuch gazlein va shayari
इश्क़ ने दिल में जगह की तो क़ज़ा[1] भी आई
दर्द दुनिया में जब आया तो दवा भी आई
दिल की हस्ती से किया इश्क़ ने आगाह मुझे
दिल जब आया तो धड़कने की सदा भी आई
सदक़े उतारेंगे, असीरान-ए-क़फ़स[2] छूटे हैं
बिजलियाँ लेके नशेमन पे घटा भी आई
हाँ! न था बाब-ए-असर[3] बन्द, मगर क्या कहिये
आह पहुँची थी कि दुश्मन की दुआ भी आई
आप सोचा ही किये, उस से मिलूँ या न मिलूँ
मौत मुश्ताक़ को मिट्टी में मिला भी आई
लो! मसीहा ने भी, अल्लाह ने भी याद किया
आज बीमार को हिचकी भी, क़ज़ा भी आई
देख ये जादा-ए-हस्ती[4] है, सम्भल कर `फ़ानी’
पीछे पीछे वो दबे पावँ क़ज़ा भी आई
शब्दार्थ:
↑ मृत्यु
↑ कैदखाने के पुराने कैदी
↑ असर की दरवाजा
↑ ज़िन्दगी की राह
दर्द दुनिया में जब आया तो दवा भी आई
दिल की हस्ती से किया इश्क़ ने आगाह मुझे
दिल जब आया तो धड़कने की सदा भी आई
सदक़े उतारेंगे, असीरान-ए-क़फ़स[2] छूटे हैं
बिजलियाँ लेके नशेमन पे घटा भी आई
हाँ! न था बाब-ए-असर[3] बन्द, मगर क्या कहिये
आह पहुँची थी कि दुश्मन की दुआ भी आई
आप सोचा ही किये, उस से मिलूँ या न मिलूँ
मौत मुश्ताक़ को मिट्टी में मिला भी आई
लो! मसीहा ने भी, अल्लाह ने भी याद किया
आज बीमार को हिचकी भी, क़ज़ा भी आई
देख ये जादा-ए-हस्ती[4] है, सम्भल कर `फ़ानी’
पीछे पीछे वो दबे पावँ क़ज़ा भी आई
शब्दार्थ:
↑ मृत्यु
↑ कैदखाने के पुराने कैदी
↑ असर की दरवाजा
↑ ज़िन्दगी की राह