स्वर सँवरता नहीं, आचमन के बिना।
पग ठहरता नहीं, आगमन के बिना।।
देश-दुनिया की चिन्ता, किसी को नहीं,
मन सुधरता नहीं, अंजुमन के बिना।
मोह माया तो, दुनिया का दस्तूर है,
सुख पसरता नहीं, संगमन के बिना।
खोखली देह में, प्राण कैसे पले,
बल निखरता नहीं, संयमन के बिना।
क्या करेगा यहाँ, अब अकेला चना,
दल उभरता नहीं, संगठन के बिना।
“रूप” कैसे खिले, धूप कैसे मिले?
रवि ठहरता नहीं है, गगन के बिना।