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मुशायरा::: नॉन-स्टॉप

Wednesday, December 28, 2011

दल उभरता नहीं, संगठन के बिना


स्वर सँवरता नहीं, आचमन के बिना।
पग ठहरता नहीं, आगमन के बिना।।

देश-दुनिया की चिन्ता, किसी को नहीं,
मन सुधरता नहीं, अंजुमन के बिना।

मोह माया तो, दुनिया का दस्तूर है,
सुख पसरता नहीं, संगमन के बिना।

खोखली देह में, प्राण कैसे पले,
बल निखरता नहीं, संयमन के बिना।

क्या करेगा यहाँ, अब अकेला चना,
दल उभरता नहीं, संगठन के बिना।

“रूप” कैसे खिले, धूप कैसे मिले?
रवि ठहरता नहीं है, गगन के बिना।

Tuesday, December 27, 2011

ये औरत ही है !


ये औरत ही है !


पाल कर कोख में जो जन्म देकर बनती है जननी

औलाद की खातिर मौत से भी खेल जाती है .


बना न ले कहीं अपना वजूद औरत

कायदों की कस दी नकेल जाती है .


मजबूत दरख्त बनने नहीं देते

इसीलिए कोमल सी एक बेल बन रह जाती है .


हक़ की आवाज जब भी बुलंद करती है

नरक की आग में धकेल दी जाती है




फिर भी सितम सहकर वो मुस्कुराती है

ये औरत ही है जो हर ज़लालत झेल जाती है .


शिखा कौशिक

[vikhyaat ]












Tuesday, December 20, 2011

मुझको अहसास का ऐसा घर चाहिए

Farhat Durrani

जिंदगी चाहिए मुझको मानी भरी,
चाहे कितनी भी हो मुख्तसर, चाहिए।

...
लाख उसको अमल में न लाऊँ कभी,
शानोशौकत का सामाँ मगर चाहिए।

जब मुसीबत पड़े और भारी पड़े,
तो कहीं एक तो चश्मेतर चाहिए।

हर सुबह को कोई दोपहर चाहिए,
मैं परिंदा हूं उड़ने को पर चाहिए।

मैंने मांगी दुआएँ, दुआएँ मिलीं
उन दुआओं का मुझपे असर चाहिए।

जिसमें रहकर सुकूं से गुजारा करूँ
मुझको अहसास का ऐसा घर चाहिए।


--कन्हैयालाल नंदन

Wednesday, December 14, 2011

शब भर रह़ा चर्चा तेरा

  • कल चौदहवीं की रात थी,
    शब भर रह़ा चर्चा तेरा |
    किसी ने कहा कि चाँद है,
    किसी ने कहा चेहरा तेरा |
    हम भ़ी वहीं मौजूद थे,
    ... हम से भ़ी सब पूछा किए |
    हम कुछ न बोले चुप रहे,
    मंज़ूर था परदा तेरा |

Saturday, December 10, 2011

आओ चुप्पी तोड़कर इन सबका भांडा फोड़ दें

न्याय की गद्दी पर बैठे व् न्याय दिलवाने वाले ही भ्रष्ट हो जायेंगे तो समाज को अपराध -अन्याय के गहरे गर्त में जाने से कौन रोक सकता है ?आज यह जरूरी हो गया है जनता सजग बने .अन्याय का विरोध करे -

जो कलम रिश्वत की स्याही से लिखे इंसाफ को
मुन्सिफों की उस कलम को आओ आज तोड़ दें .

जो लुटे इंसाफ की चौखट पे माथा टेककर;
टूटे हुए उनके भरोसे के सिरों को जोड़ दें .

कितने में बिकते गवाह; कितने में मुंसिफ बिक रहे
आओ चुप्पी तोड़कर इन सबका भांडा फोड़ दें .

इंसाफ की गद्दी पे बैठे हैं , इसे ही बेचते
सोयी हैं जिनकी रूहें आओ उन्हें झंकझोर दें .

जो जिरह के नाम पर लोगों की इज्जत तारते
ए शिखा !उनसे कहो कि वे वकालत छोड़ दें .