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मुशायरा::: नॉन-स्टॉप

Tuesday, June 28, 2011

गज़ल की गज़ल.-२ ..कैसे कैसी गज़लें .....ड़ा श्याम गुप्त...

शेर मतले का न हो तो कुंवारी ग़ज़ल होती है |
हो काफिया भी जो नहीं बेचारी ग़ज़ल होती है |

और भी मतले हों, हुश्ने तारी ग़ज़ल होती है ,
हर शेर मतला हो, हुश्ने हजारी ग़ज़ल होती है |

हो रदीफ़ काफिया नहीं, नाकारी ग़ज़ल होती है ,
मकता बगैर हो ग़ज़ल वो मारी ग़ज़ल होती है |

मतला भी मकता भी रदीफ़ काफिया भी हो,
सोच समझ के लिख के सुधारी ग़ज़ल होती है |

हो बहर में सुर ताल लय में, प्यारी ग़ज़ल होती है,
सब कुछ हो कायदे में वो संवारी ग़ज़ल होती है |

हर शेर एक  भाव हो वो  जारी ग़ज़ल होती  है,
हर शेर नया अंदाज़ हो वो भारी ग़ज़ल होती है |

मस्ती में कहदें झूम के गुदाज़कारी ग़ज़ल होती है |
उनसे तो जो कुछ भी कहें वो सारी ग़ज़ल होती है |

जो वार दूर तक करे  वो करारी ग़ज़ल होती है,
छलनी हो दिल आशिक का शिकारी ग़ज़ल होती है |

हो दर्दे-दिल की बात दिलदारी ग़ज़ल होती  है,
मिलने का करें वायदा मुतदारी ग़ज़ल होती है |

तू गाता चल ऐ यार,  कोई  कायदा न देख,
कुछ अपना ही अंदाज़ हो खुद्दारी ग़ज़ल होती है |

जो उसकी राह में कहो  इकरारी ग़ज़ल  होती  है ,
अंदाज़े बयाँ हो श्याम' का वो न्यारी ग़ज़ल होती है ||

वो जैसे भंवर में फंसा कर गए.

ज़रा आये ठहरे चले फिर गए,
     हमारे दिलों में जगह कर गए.
न कह पाए मन की  न सुन पाए उनकी ,
   बस देखते आना जाना रह गए.

बिछाए हुए थे उनकी राहों में पलकें,
   नयन भी हमारे खुले रह गए.
न रुकना था उनको नहीं था ठहरना ,
  फिर आयेंगे कहकर चले वो गए.

न मिलने की चाहत न रुकने की हसरत,
   फिर आने का वादा क्यों कर गए.
हमें लौट कर फिर जीना था वैसे ,
   वो जैसे भंवर में फंसा कर गए.
         शालिनी कौशिक 

Monday, June 27, 2011

दुआएं तेरी क्यूँ हो गयीं बेअसर...: Saleem Khan

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मंज़िले-जाविदाँ की पा सका न डगर
पूरा होके भी पूरा हो सका न सफ़र

दुआएं तो तुने भी की थी मेरे लिए
दुआएं तेरी भी क्यूँ हो गयीं बेअसर

मुश्किल कुछ भी नहीं इस जहाँ में
साथ तेरा जो मिल जाए मुझे अगर

दिखा जब से मुझे सिर्फ तेरा ही दर
तब से ही भटक रहा हूँ मैं दर ब दर

जब तू समा ही गयी है मेरी नज़र में
तो अब क्यूँ नहीं आ रही है मुझे नज़र

पीर.....ड़ा श्याम गुप्त....

उसमें घुसने तक का हक नहीं मुझको |
दरो -दीवार जो  मैंने   ही  बनाई है |

मैं  ही  सिज़दे  के काविल नहीं उसमें,
ईंट दर ईंट मस्जिद मैंने ही चिनाई है |

कितावों के पन्नों में उसी का ज़िक्र नहीं ,
पन्नों पन्नों ढली  वो बेनाम स्याही है |

लिख दिये हैं ग्रंथों पर लोगों के नाम,
अक्षर अक्षर तो कलम की लिखाई है |

गगन चुम्बी अटारियों पर है सब की नज़र,
नींव के पत्थर की सदा किसको सुहाई है |

सज संवर के इठलाती तो हैं इमारतें ,
अनगढ़ पत्थरों की पीर नींव में समाई है |

वो दिल तो कोइ दिल ही नहीं जिसमें,
भावों  की  नहीं बज़ती  शहनाई है |

इस सूरतो-रंग का क्या फ़ायदा 'श्याम,
जो मन में नहीं पीर ज़माने की समाई है ||

Sunday, June 26, 2011

वो कोई नहीं है...

पिला कर गिराना नहीं कोई मुश्किल,
गिरे को उठाये वो कोई नहीं है.
ज़माने ने हमको दिए ज़ख्म इतने,
जो मरहम लगाये वो कोई नहीं है.

शायर-हरबंस सिंह 'निर्मल'
प्रस्तुति-शालिनी कौशिक 

Saturday, June 25, 2011

क्या मैं हूँ कमज़ोर या फिर हूँ ताक़तवर: Saleem Khan


क्या मैं हूँ कमज़ोर या फिर हूँ ताक़तवर
क्यूँ फूंक के बैठा हूँ खुद मैं अपना घर

ग़म ज़ेहन में पसरा है तारिक़ी का पहरा है
न रास्ते का है पता अब मैं जाऊं किस डगर

आरज़ू मेरे दिल की क्यूँ तमाम हो गयी
ज़िन्दगी जाएगी किधर नहीं है कुछ ख़बर

अक्स मेरा अब खुद हो गया खिलाफ़ मेरे
चेहरा मेरा खुद क्यूँ नहीं आता है नज़र

तेरा ही सहारा है ऐ खुदा, कर दे मदद
मेरी तरफ़ भी तू कर दे रहम की नज़र

Friday, June 24, 2011

बहारों के आस-पास

यूँ गुल खिले हैं बाग़ में खारों के आस-पास,
जैसे की गर्दिशें हों सितारों के आस-पास.
रौनक चमन में आ गयी लेकिन न भूलना, 
शायद खिज़ा छुपी हो बहारों के आस-पास.

शायर-हरीश चन्द्र''नाज़ ''
प्रस्तुति-शालिनी कौशिक 

Thursday, June 23, 2011

एक पहेली, प्यार का यह संदेश कौन दे रहा है ?

दे रहा है अमन का पैगाम भारत!
अब नहीं होगा हमारा देश आरत!!

आदमी हँसकर मिले इनसान से,
सीख लो यह सीख वेद-कुरान से,
वाहेगुरू का भी यही उपदेश है,
बाईबिल में प्यार का सन्देश है,
------------------------------------
प्यार का यह संदेश कौन दे रहा है ?
यह एक पहेली है।
पहले आप अंदाज़ा लगाइये और जब आप कोई नाम अपने मन में तय कर लें तो नीचे दिए गए लिंक पर जाकर चेक कर लीजिए कि आपका जवाब कितना सही है ?
इसके बाद आप टिप्पणी करके बताएं कि आपने क्या नाम सोचा था और आपको क्या नाम मिला ?

शुक्रिया !


अहले वफ़ा के शहर में क्या हादसा मिला: Saleem Khan

अहले वफ़ा के शहर में क्या हादसा मिला
मुझसे जो शख्स मिला सिर्फ़ बेवफ़ा मिला

मैंने ज़िन्दगी भर उसे अपना हबीब ही समझा
उसको ये क्या हुआ कि वो रक़ीबों से जा मिला

उम्र भर जिसके साथ रहे मोहब्बत की राह में
उसी का पता ज़िन्दगी भर मैं पूछता मिला

दोस्त बन बन के मुझे दर्द देते रहे सभी
अपनों के बीच कुछ ऐसा सिलसिला मिला

तू मानव बनना सीख ले ................

सीता मुझमें ढूँढने वाले
पहले राम तो बनना सीख ले
राम भी बनने से पहले
तू मानव बनना सीख ले
हर सीता को राम मिले
ऐसा यहाँ कब होता है
राम के वेश में ना जाने
कितने रावण हैं विचर रहे
इस दुनिया रुपी वन में
आजाद ना कोई सीता है
कदम कदम पर यहाँ
भयभीत हर इक सीता है
रात के बढ़ते सायों में
महफूज नही कोई सीता है
सीता को ढूँढने वाले मानव
तू नर तो बनना सीख ले
सीता के भक्षक रावणों से
पहले सीता को बचाना सीख ले
पग-पग पर अग्निपरीक्षा लेने वाले
पहले तू मानव तो बनना सीख ले
तू मानव बनना सीख ले ................

Wednesday, June 22, 2011

नेकी ....गज़ल .....ड़ा श्याम गुप्त ...

इक रोज की जो  और  रब ने  ज़िंदगी दे दी |
मत समझिए कि आपको यह ज़िंदगी दे दी |

ज़िंदगी  की  तो न थी शायद जरूरत आपको ,
तुझको   औरों  के  लिए  कुछ   ज़िंदगी  दे दी |

हर रोज  नेकी के लिए  कर मुक़र्रर कुछ वक्त ,
हो  फख्र  तुझको  भी  तुझे  सब  ज़िंदगी दे दी  |

हर सुबह लाती है नया इक ज़िंदगी का पयाम ,
नेकी  के  वास्ते  नयी   इक  ज़िंदगी  दे दी ||

हर रोज सुबह खुदा का, कर शुक्रिया ऐ श्याम ,
इक नयी नेकी वास्ते , फिर   ज़िंदगी  दे दी ||

मुहब्बत के सिवा इन मसलों का हल नहीं कोई

इधर भी धूप दहशत की, उधर भी धूप दहशत की
मुरव्वत का असद लेकिन कहीं बादल नहीं कोई
यहाँ मंदिर पे ख़ूँरेज़ी, वहाँ मसलक पे नफ़रत है 
मुहब्बत के सिवा इन मसलों का हल नहीं कोई

-Asad Raza

मसलक = पंथ , ख़ूँरेज़ी = ख़ून बहाना

Tuesday, June 21, 2011

ज़मीर

एक चीज़ थी ज़मीर वो वापस न ला सका,
लौटा तो है ज़रूर वो दुनिया खरीद कर.
                   कमर इकबाल 
प्रस्तुति-शालिनी कौशिक 

Monday, June 20, 2011

दुनिया के दानिश्वर



कुछ समझता नहीं सियासत को
दुनियादारी को जानता ही नहीं
कोई झूठा क़सीदा लिखने को 
   -असद रज़ा

शब्दार्थ
क़सीदा-शायरी की एक विधा जिसमें तारीफ़ में शेर कहे जाते हैं।

जाने कहाँ गए ..गज़ल ...डॉ श्याम गुप्त....

सीधे थे सच्चे सरल सब  जाने कहाँ गए |
सत-न्याय पर चलिए सदा राहें बता गए |

वे हंस से शुचि औ सरल द्युतिमान धवल थे,
केकी के नृत्य-रंग युत,  जीवन सजा गए |


कोकिल की कूक से मधुर, चातक की आन थे ,
अब तो  चमन में हर तरफ, कौवे ही छागये |

वे सारे सत्यनिष्ठ , दृढ प्रतिज्ञ , कर्मवीर ,
माँ भारती की आन पे,  जीवन लुटा गए |


अब क्या चमन में सैर को जाए कोई ऐ श्याम ,
कांटे ही हर गुलशन सजे, वो गुल कहाँ गए  ||


Sunday, June 19, 2011

मेरे वालिद

मेरे वालिद

ग़मों को ठोकरें मिटटी में मिला ही देती ,

मेरे वालिद ने आगे बढ़ के मुझे थाम लिया .


मुझे वजूद मिला एक नयी पहचान मिली ,

मेरे वालिद ने मुझे जबसे अपना नाम दिया .


मेरी नादानियों पर सख्त हो डांटा मुझको;

मेरे वालिद ने हरेक फ़र्ज़ को अंजाम दिया .


अपनी मजबूरियों को दिल में छुपाकर रखा ;

मेरे वालिद ने रोज़ ऐसा इम्तिहान दिया .


खुदा का शुक्र है जो मुझपे की रहमत ऐसी ;

मेरे वालिद के दिल में मेरे लिए प्यार दिया .

शिखा कौशिक

http://shikhakaushik666.blogspot.com


Saturday, June 18, 2011

“अपना-अपना भाग्य” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")



कोई काँटों की पीड़ा में खिल जाएगा।
कोई गर्मी के मौसम में जल जाएगा।।


खिल रहे हैं चमन में हजारों सुमन,
भाग्य कब जाने किस का बदल जायेगा! 

कोई श्रृंगार देवों का  बन जायेगा,

कोई जाकर के माटी में मिल जायेगा!! 



कोई यौवन में  भरकर हँसेगा कहीं,
कोई खिलने से पहले ही ढल जायेगा! 

कोई अर्थी पे होगा सुशोभित कहीं,
कोई पूजा की थाली में इठलायेगा!  

हार पुष्पांजलि का बनेगा  कोई,
कोई  जूड़े में गोरी के गुँथ जायेगा!

Friday, June 17, 2011

हुनर हो कोई भी बड़ी ही कोशिशें माँगे

मेरी पहली ई किताब के हवाले से चंद अशआर:-


विकास की खातिर मदद के नाम पर यारो
लुटा रहे लाखों करोड़ों कारखानों पर

=====

हिन्दोस्ताँ को जगदगुरु यूँ ही नहीं कहते सभी
डायवर्सिटी होते हुए भी है यहाँ पर यूनिटी

=====

मेरे दिल की तसल्ली कहाँ गुम हो तुम
ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई

=====

क़ामयाबी के जश्न से पहले, देख क्या खोया और क्या पाया
बन गया 'साब' कल जो था 'लेबर', फिर भी 'रोटी' न वो जुटा पाया

=====

हुनर हो कोई भी बड़ी ही कोशिशें माँगे
न खूँ में होता है, न मिलता ये दुक़ानों पर

=====


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विश्व शान्ति के लिए वेदों का सन्देश...नज़्म......डा श्याम गुप्त....

"सब को मिले अम्नो-चैन भरपूर  |
सभी  रहें  बुराई   से सदा  दूर  |
दुःखो-गम  न छुएं किसी को कभी-
सब को हो, सबसे  नेकियों  का सुरूर ||   "   

                      ( ऋग्वेद में  सर्वें सुखिना सन्तु.... मन्त्र  द्वारा , जो विश्व के प्रत्येक व्यक्ति द्वारा , प्रत्येक व्यक्ति के प्रति, सुख, शान्ति की प्रार्थना की गयी है वह सार्वजनीन व सार्वकालिक है एवं आज भी दुनिया के सभी दुःख-द्वंद्वों की समाप्ति के हित , विश्व व मानवता के लिए आदर्श व अनुकरणीय है....|)

Thursday, June 16, 2011

विश्व शांति और मानव एकता के लिए हज़रत अली की ज़िंदगी सचमुच एक आदर्श है


तेरह रजब के मौक़े पर आओ ये अहद लें
मसलक हो ख्वाह  कोई भी मिलकर रहेंगे हम
अल्लाह और क़ुरआनो नबी हैं हमारे एक 
एक दूसरे पे कुफ़्र के फ़तवे न देंगे हम

    -असद रज़ा
तेरह रजब-अरबी माह रजब की तेरह तारीख़
अहद-संकल्प, ख्वाह-चाहे
कुफ़्र-अधर्म, नास्तिक्य, फ़तवा-धार्मिक निर्णय

कल तेरह रजब थी। इस दिन हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु पैदा हुए थे। जब भी सही और ग़लत के बीच फ़ैसले की नौबत आई तो उन्होंने हमेशा सत्य और न्याय को ही चुना। बचपन से ही उनका यह मिज़ाज था। इसी अभ्यास के कारण उनका चरित्र ऐसा बन गया था कि उनसे जीवन में कभी फ़ैसले की कोई ग़लती नहीं हुई और यही वजह है कि उनकी ज़िन्दगी में भी हमें कोई ग़लती नज़र नहीं आती। उनकी इस बात की गवाही उनसे युद्ध करने वालों ने भी दी है। अपने ख़ून के प्यासों पर भी उन्होंने कभी कुफ़्र का फ़तवा लागू नहीं किया। उनकी ज़िंदगी लोगों को शांति, एकता और भाईचारे का पाठ पढ़ाने में ही गुज़र गई और एक रोज़ जब वह मालिक का नाम ले रहे थे तो उनके सिर पर एक दुश्मन ने तलवार मारी और कुछ दिन बाद हज़रत अली रज़ि. शहीद हो गए। विश्व शांति और मानव एकता के लिए उनकी ज़िंदगी सचमुच एक आदर्श है।
इस विषय में ज़्यादा जानने के लिए आप देख सकते हैं :

हज़रत अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम जीवन परिचय व चारित्रिक विशेषताऐं


Wednesday, June 15, 2011

कुछ बात करो ...डा श्याम गुप्त ...

अब न चुप दिलदार रहो कुछ बात करो ,
बात न भी हो  तो भी  यूं ही  बात करो |
इसरार व इकरार पर ही  तकरार करें ,
चलो बेबात ही झगड़ो, कुछ बात करो  ||   

Tuesday, June 14, 2011

पाँव के छालेँ

लोग तो सेब से गालों पर ग़ज़ल कहते हैं
हम मगर सूखे निवालोँ पर ग़ज़ल कहते हैं ।
हम ने पाई काँटोँ की चुभन से राहत
इसलिए पाँव के छालों पर ग़ज़ल कहते हैं ।
तहसीन मुनव्वर

कुछ करूँ तेरे लिये

आ आंखों ही आंखों में
तेरी आत्मा को चूम लूँ
बिना तेरा स्पर्श किए
तेरे हर अहसास को छू लूँ
बिना तेरा नाम लिए
तेरी ज़िन्दगी को रोशन कर दूँ
तेरे हर ख्वाब को
बिना तेरे देखे पूरा कर दूँ
तेरे हर ज़ख्म को
बिना तुझ तक पहुंचे
अपने सीने में छुपा लूँ
तेरी हर साँस पर
अपनी सांसों का पहरा लगा दूँ
तेरे हर मचलते अरमान को
बिना तेरे जाने
अपने आगोश में ले लूँ
तेरी हर उदासी को
बिना तुझ तक पहुंचे
ख़ुद में समेट लूँ
तेरी आत्मा के हर बोझ को
बिना तेरे झेले
मैं ख़ुद उठा लूँ
आ तेरी रूह की थकन को
कुछ सुकून पहुँचा दूँ

Monday, June 13, 2011

" ग़ज़ल-इबादत का ढोंग..." (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

जो परिन्दे के पर कतरता है।
वो इबादत का ढोंग करता है।।

जो कभी बन नही सका अपना,
दम वही दोस्ती का भरता है।

दीन-ईमान को जो छोड़ रहा,
कब्र में पाँव खुद ही धरता है।

पार उसका लगा सफीना है,
जो नही ज़लज़लों से डरता है।

इन्तहा जिसने जुल्म की की है,
वो तो कुत्ते की मौत मरता है।

Sunday, June 12, 2011

हसीन मौत मक़सद है आरिफ़ाने हक़ का

Dr. Anwer Jamal Khan
गर हसीं मौत की हसरत न निकाली जाए
ज़िंदगी कौन सी फ़हरिस्त में डाली जाए
-आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी

आरिफ़ाने हक़-सत्य की हक़ीक़त जानने वाले
फ़हरिस्त-सूची

सच..... डा श्याम गुप्त ...

सच बड़ी बड़ी किताबों में बंद है,
क्योंकि बाहर की दुनिया बड़ी हुनरमंद है |
झूठ को ही सच बना लेती है,
ज़िंदगी का फलसफा सजा लेती है ||                    

Friday, June 10, 2011

मिस्र का बाज़ार

अब मेरा क़ाफ़ला सालार नहीं है कोई
और मेरे सर पे भी दस्तार नहीं है कोई ।
जिस को बिकना है वह बिक जाए कहीं भी जाकर
अब यहाँ मिस्र का बाज़ार नहीं है कोई ।
तहसीन मुनव्वर
.............................................................................

Thursday, June 9, 2011

नयों को हौसला भी दो, न ढूंढो ग़लतियाँ केवल

हमें इक दूसरे से गर गिला शिक़वा नहीं होता|
तो अंग्रेजों ने हम को इस क़दर बाँटा नहीं होता|१|

नयों को हौसला भी दो, न ढूंढो ग़लतियाँ केवल|
बड़े शाइर का भी हर इक क़ता आला नहीं होता|२|

हज़ारों साल पहले सीसीटीवी आ गई होती|
युधिष्ठिर जो शकुनि के सँग जुआ खेला नहीं होता|३|

अदब से पेश आना चाहिए साहित्य में सबको|
कोई लेखक किसी भी क़ौम का चेहरा नहीं होता|४|

ज़रा समझो कि 'कॉरपोरेट' भी अब मानता है ये|
गृहस्थी से जुड़ा इन्सान लापरवा' नहीं होता|५|

Wednesday, June 8, 2011

काँए काँए कर रहे हैं आज इस गुलशन में ज़ाग़



उफ़ सियासत की तमाज़त से वह मुरझाने लगा
कल जो गाँधी जी ने अपने खून से सीँचा था बाग ।
अँदलीबाने चमन तो सब चमन से उड़ गए
काँए काँए कर रहे हैं आज इस गुलशन में ज़ाग़ ।
                                 -मतीन अमरोही


शब्दार्थ:
अँदलीबाने चमन-बाग़ की बुलबुलें

ज़ाग़-काग, कौआ
----------------------------------------------
हर रंग और हर नस्ल की बुलबुलें देखने के लिए क्लिक कीजिये
http://www.google.co.in/search?hl=en&q=bulbul&biw=800&bih=485&um=1&ie=UTF-8&tbm=isch&source=og&sa=N&tab=wi

Tuesday, June 7, 2011

चर्चा नहीं होता...गज़ल..डा श्याम गुप्त...

हमारी नज़र झुक जाए कोई  चर्चा नहीं होता |
शराफत में झुकीं नज़रें,कोइ चर्चा नहीं होता |

वो नज़रें  झुका लेते हैं ,  हया की बात होती है ,
नज़र अपनी भी झुकती है,कोइ चर्चा नहीं होता 

गुरुरे-हुश्न में नज़रें मिलीं तो हया कह डाला,
सुरूरे-इश्क नज़रों का, कोइ चर्चा नहीं होता |

जवानी, हुश्न, शानो-शौक ने एसा गज़ब ढाया,
जहां की नज़रें झुक जाएँ, कोई चर्चा नहीं होता |

भरी नज़रों का धोका है, नज़र की शोखियाँ ही तो,
वो उनकी शोख नज़रों का कोई चर्चा नहीं होता |

नज़र के तीर की बातें भला अब क्या करे कोई,
न जाने कितने घायल हैं कोई चर्चा नहीं होता |

न उनके शोख ज़लवों की, श्याम चर्चा चले कोई,
शहर में उनका ज़लवा है,कोई चर्चा नहीं होता |

न अब चर्चा की कोई बात कर,चर्चा में आ ऐ श्याम,
यही  चर्चा  शहर में  है,  कोई  चर्चा  नहीं  होता ||





इबादत में सियासत - Asad Raza

दिलों में सियासत , अदाएं सियासी
मुहब्बत भी आप तो सियासतज़दा है
सियासी इमाम व ग्रंथी , पुजारी
इबादत भी अब तो सियासतज़दा है

Monday, June 6, 2011

मंज़िल

बात इतनी न टालिए साहब
दर्द इतना न पालिए साहब ।
कोई मंज़िल तो ढूँढिए आख़िर
कोई रस्ता निकालिए  साहब ।

तहसीन मुनव्वर
..................................................
   

Sunday, June 5, 2011

ठाठ से रहते ए सी बंगले में / हम अगर बेज़मीर हो जाते - व्यंग्य, कविता

राह पर चलते गर करप्शन की
कुछ ही दिन में अमीर हो जाते
ठाठ से रहते ए सी बंगले में
हम अगर बेज़मीर हो जाते

-Asad Raza

Saturday, June 4, 2011

तनहा हैं....डा श्याम गुप्त....

आज महफ़िल में हम तनहा हैं |
कैसे कहदें  मगर तनहा हैं |

आप  जो आ बसे दिल हमारे,
कैसे कहदें ए दिल, तनहा हैं |

लूट लें ना ये तनहाइयां ,
धडकनों की ये शहनाइयां |
एक  यादों की  तस्वीर सी,
बनगयीं दिलकी गहराइयां |

सच है महफ़िल में हम तनहा हैं,
यूं तो कहने को हम तनहा हैं |
हम सफ़र ना कोइ बागवाँ,
इस चमन में यूं हम तनहा हैं |

रूह  में  आप  ऐसे  समाये,
कैसे कहदें ऐ दिल तनहा हैं |

बन के ख़्वाबों की ताबीर आये, 
कैसे कहदें कि हम तनहा हैं ॥



Friday, June 3, 2011

प्रसन्नता


वो एक हंसी पल जब तुम्हे नज़दीक पाया था,
उमड़ आयी थी चेहरे पर हंसी,
सिमट आयी थी करीब जिंदगी मेरी;
मेरे अधरों पर हलकी सी हुई थी कम्पन;
मेरी आँखों में तेज़ी से हुई थी हलचल;
मेरा रोम-रोम घबराने लगा था;
मेरा मन भी भरमाने   लगा था;
तभी किसी ने धीरे से ये कहा था ;
पहचाना मैं हूँ वह कली   ,
जो है तेरी बगिया में खिली;
और प्रसन्नता जिसको कहते  हैं  सभी .
                                      शालिनी कौशिक 

आँख तो फिर भी भर आई होगी ............

कुछ अश्क तो झड़ते होंगे
आँख से तेरी भी
कुछ कहानी
मेरी भी तो
कहते होंगे
दर्द जो दिया तूने
उसे इक नया
नाम तो देते होंगे
यादों को मेरी
तेरी यादों में
संजोते तो होंगे
जो पल
साथ बिताये थे
याद दिलाते होंगे
कभी रुलाते होंगे
कभी हँसाते होंगे
कभी यादों के नश्तर
चुभाते तो होंगे
कभी ज़ख्म हरे
होते तो होंगे
कहीं कोई नासूर
भी तो होगा
उसे कुरेदते तो होंगे
अश्क मरहम बन वहां
टपक तो जाते होंगे
मुझे तडपाने की चाह में
क्या तू न तड़पता होगा
मुझे रुलाने की चाह में
क्या तू न रोता होगा
कुछ यादों के कफ़न
उम्र भर ओढ़ने पड़ते हैं
कहीं तू भी तो भटका होगा
मेरी चाह में
कभी तो सिसका होगा
एक टीस बन
दर्द कभी तो
छलछलाता होगा
कुछ न कुछ तो
दिल तेरा भी
बुदबुदाता होगा
मेरे दर्द की याद में
कुछ चाहतें तेरी भी तो
कसमसाई होंगी
कभी याद न आई हो मगर
आँख तो फिर भी
भर आई होगी
आँख तो फिर भी
भर आई होगी ............

Thursday, June 2, 2011

माँ शारदे !...ग़ज़ल....डा श्याम गुप्त.....

वन्दना के स्वर गज़ल में कह सकूं माँ शारदे !
कुछ शायरी के भाव का भी ज्ञान दो माँ  शारदे !  

माँ की कृपा यदि हो  न तो कैसे ग़ज़ल साकार हो,
कुछ कलमकारी का मुझे भी ज्ञान दो माँ शारदे !

मैं जीव,  माया बंधनों में,   स्वयं को भूला हुआ,
नव-स्वरलहरियों से हे माँ! हृद-तंत्र को झंकार दे |

मैं स्वयं को पहचान लूं , उस आत्मतत्व को जान लूं ,
अंतर में,  अंतर बसे उस,  पर-ब्रह्म को गुंजार दे  |

हे श्वेत कमलासना माँ ! हे शुभ्र वस्त्र से आवृता ,
वीणा औ पुस्तक कर धरे,यह नत-नमन लो शारदे !

मैं बुद्धि हीन हूँ काव्य-सुर का ज्ञान भी मुझको नहीं,
उर ग़ज़ल के स्वर बह सकें, कर वीणा की टंकार दे |

ये वन्दना के स्वर-सुमन, अर्पण हैं  माँ स्वीकार लो,
हो धन्य जीवन ,श्याम का,बस कृपा हो माँ शारदे !





Wednesday, June 1, 2011

भूख का डर

जो लोग यहाँ बूढ़े शजर काट रहे हैं
नादान हैं ये अपना ही सर काट रहे हैं ।
कुछ लोग यहाँ भूख से वाकिफ़ ही नहीं हैं
कुछ लोग मगर भूख का डर काट रहे हैं।

तहसीन मुनव्वर
.......................................