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मुशायरा::: नॉन-स्टॉप

Saturday, May 28, 2011

सरे-ज़माना मैंने अब सर कटाया है: Saleem Khan


 

ये कैसा हादसा हमें पेश आया हैं
सिर पे सलीब रोज़ हमने उठाया है

ब चिराग़-ओ-शम्स मयस्सर न हुआ
अपने दिल को रौशनी के लिए जलाया हैं

शियाना मुझे एक मयस्सर न हो सका
ऐ खुदा तुने ये जहाँ किस तरह बनाया है

मैं क्या करूँगा ज़माने की ख्वाहिशें
जबसे तुने मुझको रोना सिखाया है 
  
तेरे ही बदौलत सही मुझे ये नसीब है
सरे-ज़माना मैंने अब सर कटाया है
  
क़िस्मत की दास्ताँ कुछ इस तरह हुई
ग़मख्वार ने ही 'सलीम' हर ग़म बढाया है
http://zindagikiaarzoo.blogspot.com

9 comments:

DR. ANWER JAMAL said...

मेहनत करेगा जो घर बना लेगा वो
तेरी आज़माइश को उसने जहाँ बनाया है

Shikha Kaushik said...

bahut khoob .

vandan gupta said...

जब चिराग़-ओ-शम्स मयस्सर न हुआ
अपने दिल को रौशनी के लिए जलाया हैं

वाह क्या खूब कहा है…………बहुत सुन्दर्।

किलर झपाटा said...

बहुत ही अच्छी गजल।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत उम्दा शेरों से सजी हुई ग़ज़ल!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!

Shalini kaushik said...

जब चिराग़-ओ-शम्स मयस्सर न हुआ
अपने दिल को रौशनी के लिए जलाया हैं
bahut khoob.vah.

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

शानदार गजल।

---------
मौलवी और पंडित घुमाते रहे...
सीधे सच्‍चे लोग सदा दिल में उतर जाते हैं।

Udan Tashtari said...

वाह!! बेहतरीन

डा श्याम गुप्त said...

क़िस्मत की दास्ताँ कुछ इस तरह हुई
ग़मख्वार ने ही 'सलीम' हर ग़म बढाया है---वह क्या बात है , क्या खूब---

दीप खुद जल के ज़माने को दिशा देता है,
बन के तूफ़ान ज़माने ने ही बुझाया है ॥