ये कैसा हादसा हमें पेश आया हैं
सिर पे सलीब रोज़ हमने उठाया है
जब चिराग़-ओ-शम्स मयस्सर न हुआ
अपने दिल को रौशनी के लिए जलाया हैं
आशियाना मुझे एक मयस्सर न हो सका
ऐ खुदा तुने ये जहाँ किस तरह बनाया है
मैं क्या करूँगा ज़माने की ख्वाहिशें
जबसे तुने मुझको रोना सिखाया है
तेरे ही बदौलत सही मुझे ये नसीब है
सरे-ज़माना मैंने अब सर कटाया है
क़िस्मत की दास्ताँ कुछ इस तरह हुई
ग़मख्वार ने ही 'सलीम' हर ग़म बढाया है
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9 comments:
मेहनत करेगा जो घर बना लेगा वो
तेरी आज़माइश को उसने जहाँ बनाया है
bahut khoob .
जब चिराग़-ओ-शम्स मयस्सर न हुआ
अपने दिल को रौशनी के लिए जलाया हैं
वाह क्या खूब कहा है…………बहुत सुन्दर्।
बहुत ही अच्छी गजल।
बहुत उम्दा शेरों से सजी हुई ग़ज़ल!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जब चिराग़-ओ-शम्स मयस्सर न हुआ
अपने दिल को रौशनी के लिए जलाया हैं
bahut khoob.vah.
शानदार गजल।
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मौलवी और पंडित घुमाते रहे...
सीधे सच्चे लोग सदा दिल में उतर जाते हैं।
वाह!! बेहतरीन
क़िस्मत की दास्ताँ कुछ इस तरह हुई
ग़मख्वार ने ही 'सलीम' हर ग़म बढाया है---वह क्या बात है , क्या खूब---
दीप खुद जल के ज़माने को दिशा देता है,
बन के तूफ़ान ज़माने ने ही बुझाया है ॥
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