दूर जाके मुझसे बना लिए ठिकाने
अलग रहने के बना लिए बहाने
बिछड़ के तुमने बहुत अश्क़ हैं दिए
उन्हीं अश्क़ से हमने बना लिए फ़साने
दौलत पे अपने तुम्हें रश्क है बहुत
हमने मुफ़लिसी को बना लिए ख़जाने
महलों में रहने वाली तुम खुश रहो सदा
हमने तो खंडहर में अब बना लिए ठिकाने
शहनाई बज उठी जब लाश पे 'सलीम'
मैंने उन्ही से अब अपने बना लिए तराने
4 comments:
सुन्दर गज़ल्।
शहनाई बज उठी जब लाश पे 'सलीम'
मैंने उन्ही से अब अपने बना लिए तराने
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यूँ तो पूरी ग़ज़ल ही बढ़िया है मगर मक्ते का तो जवाब नहीं है!
वाह ! अनोखी अदा ।
वाह ! क्या बात है...क्या फ़साना है ...
--उन्हीं अश्क़ से हमने बना लिए फ़साने.
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