देर ही से सही मगर इक दिन
आहे मज़लूम असर दिखाती है
सामने जिसके हुक्मरानोँ की
हुक्मरानी भी हार जाती है ।
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हलीम साबिर
ग़ज़ल -सतपाल ख़याल
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आंख में तैर गये बीते ज़माने कितने
याद आये हैं मुझे यार पुराने कितने
चंद दानों के लिए क़ैद हुई है चिड़िया
ए शिकारी ये तेरे जाल पुराने कितने
ढल गया दर्द मे...
4 weeks ago
3 comments:
सच कहा आपने ।
bilkul sahi! :-)
काश कि ये सच हो पाता...अति सुन्दर...
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