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मुशायरा::: नॉन-स्टॉप

Sunday, May 29, 2011

गज़ल...आप आगये...डा श्याम गुप्त...

दर्दे दिल भागये,
जख्म रास आगये ।

तुमने पुकारा नहीं,
 हमीं पास आगये ।

कोई तो बात करो,
मौसमे इश्क आगये ।

जब भी ख्वाब आये,
तेरे अक्स आगये ।

इबादत की खुदा की ,
दिल में आप आगये ॥

19 comments:

Shalini kaushik said...

इबादत की खुदा की ,
दिल में आप आगये ॥
bahut sundar dr.shyam gupt ji.aapki prastuti se abhi hal kee ek film ke song kee pankti bhi yad aa gayee-''dil me rab basta hai''.

DR. ANWER JAMAL said...

बात अच्छी कही तो
हमें तुम भा गये

गर्म लू चली तो
तरबूज़ खा गए

जोश बाक़ी नहीं और
मौसमे इश्क़ आ गए

लिखते रहो यूं ही
जबरन फिर आ गए

Shikha Kaushik said...

bahut khoob shyam ji .Anwar ji ka comment bhi lajawab .vishesh roop se yah -
गर्म लू चली तो
तरबूज़ खा गए
kharbooja kyon nahi .

Shah Nawaz said...

वाह वाह! बहुत खूब!

प्रेमरस.कॉम

prerna argal said...

जब भी ख्वाब आये,
तेरे अक्स आगये ।

इबादत की खुदा की ,
दिल में आप आगये ॥bahut pyaari gajal.dil ko choo gai.badhaaai aapko.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

छोटी बहर की बहुत उम्दा ग़ज़ल!

Unknown said...

बहुत ही खूब ! अच्छा लगा पढ़ कर ..
मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है : Blind Devotion

डा श्याम गुप्त said...

धन्यवाद..सचिन ..आपका ब्लोग देखा अच्छा लगा...विचार करना प्रत्येक विचारवान व्यक्ति का कर्तव्य है...

डा श्याम गुप्त said...

--धन्यवाद शालिनी--सही कहा
--बेश्क मन्दिर-मस्ज़िद तोडो बुल्लेशाह कहता,\पर प्यार भरा दिल कभी न तोडो इस दिल में दिलबर रहता...

डा श्याम गुप्त said...

धन्यवाद शिखाजी--
-तरबूज, खरबूज खरीदे जमाल जी आगये,
खरबूजे हमने खाये,तरबूजे उन को भागये ॥

डा श्याम गुप्त said...

धन्यवाद प्रेरणा जी....एसा ही होता है जब...मैं मैं न रहा तू तू न रहा वाली स्थिति होती है....
--आपके ब्लोग को देखा...अच्छे भाव हैं...

डा श्याम गुप्त said...

धन्यवाद शास्त्रीजी व शाह्नवाज़ जी.
..और जमाल जी...मौसमे-इश्क में तो कब्र में पैर लटके वालों में भी जोश आजाता है..हुज़ूर...इरशाद..
लू सहकर भी तरबूज आपको देते चले गये.
गोया कि अपनी ज़िन्दगी संजोते चले गये ॥

DR. ANWER JAMAL said...

क्या है श्याम जी कि अपुन को रूटीन टाइप की टिप्पणियों से कोफ़्त सी होती है । जैसे कि
वाह वाह , भावपूर्ण सुंदर प्रस्तुति के लिए आभार आदि आदि ।

इसलिए थोड़ा तरबूज़ हम सनम खा गए
आधा रख छोड़ा था उसे क्या तुम खा गए

DR. ANWER JAMAL said...

@ शिखा जी !

जो भी हाथ लगा
वो हम खा गए

ख़रबूज़ा मिला नहीं
सो तरबूज़ खा गए

कवियों से बचूँ कैसे
भेजा मेरा खा गए

डा श्याम गुप्त said...

---तो कुछ बचा भी या नहीं अनवर जमाल साहब...या बस तरबूज ही तरबूज़....

--बिल्कुल सही फ़रमाया...कुछ जान तो होनी ही चाहिये टिप्पणी में....घिसी-पिटी में क्या...

Richa P Madhwani said...

http://shayaridays.blogspot.com/

डा श्याम गुप्त said...

sundar shayari...Richa jee Thanx....

musafir said...

इबादत की खुदा की ,
दिल में आप आगये ॥

यही होत है इश्क मे .......

डा श्याम गुप्त said...

सही कहा त्रिपाठी जी--

आशिकी की ये डोर भी कैसी है श्याम,
न भूल पायें उन्हें न याद कर पायें ज़नाब।