मानने वाले हैं वो शैताँ के
नूर के बदले नार लेते हैं
कैसे इंसान हैं जो बेटी को
रहम ए मादर में मार देते हैं
असद रज़ा
asadrnaqvi@yahoo.co.in
रहम ए मादर - माँ का गर्भ
ग़ज़ल -सतपाल ख़याल
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आंख में तैर गये बीते ज़माने कितने
याद आये हैं मुझे यार पुराने कितने
चंद दानों के लिए क़ैद हुई है चिड़िया
ए शिकारी ये तेरे जाल पुराने कितने
ढल गया दर्द मे...
4 weeks ago
2 comments:
आज के माहौल में यह रचना बहुत ही महत्वपूर्ण है!
@ आदरणीय शास्त्री जी , शुक्रिया ।
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