सिर्फ रात ही बिस्तर पर पड़ी सिसकती है
सुबह की तो कोई तकदीर ही नहीं होती
काँटों के शहर में जब फूल ही पलते हैं
उस चुभन की कोई ताबीर नहीं होती
ये अन्जान शहर के अन्जान राहियों की
उम्र गुज़र जाये मगर मंजिल नहीं होती
जिस्म के लिफ़ाफ़े लाख खुल जाएँ सुबह की तो कोई तकदीर ही नहीं होती
काँटों के शहर में जब फूल ही पलते हैं
उस चुभन की कोई ताबीर नहीं होती
ये अन्जान शहर के अन्जान राहियों की
उम्र गुज़र जाये मगर मंजिल नहीं होती
फटने वालों की कोई तकदीर नहीं होती
मन के चौबारे कितने ही खुले रखो
हर दरवाज़े पर दस्तक नहीं होती
8 comments:
रात की रानी महकती है जिस आँगन में
भौंरे पहुँचते ज़रूर हैं उस आँगन में
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/05/andha-qanoon.html
bahut badiya, Vandan ji!
हर दरवाजे पर दस्तक नही होती '
क्या बात है ...गजब !
बहुत खूब कहा है ।
सुबह ही तो नई रोशनी और नई किरण लेकर आती है...
ये अन्जान शहर के अन्जान राहियों की
उम्र गुज़र जाये मगर मंजिल नहीं होती
जिस्म के लिफ़ाफ़े लाख खुल जाएँ
फटने वालों की कोई तकदीर नहीं होती bahut hi achci rachanaa badhaai aapko.
मन के चौबारे कितने ही खुले रखो
हर दरवाज़े पर दस्तक नहीं होती..
...बहुत खूब! कमाल की प्रस्तुति..
अच्छी गज़ल है, पर.--कुछ तथ्य-भ्रम की सी स्थिति है...
----दस्तक तो एक बार हर द्वारे पर होती है ..जो वक्त को लपकने में चूक जाता है, वह चूक जाता है...
--फ़टने वाले की तकदीर ..फ़टना ही होती है...
--सुबह ही तो नई रोशनी और नई किरण लेकर आती है.
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