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मुशायरा::: नॉन-स्टॉप

Sunday, May 15, 2011

मन के चौबारे कितने ही खुले रखो

सिर्फ रात ही बिस्तर पर पड़ी सिसकती है
सुबह की तो कोई तकदीर ही नहीं होती

काँटों के शहर में जब फूल ही पलते हैं
उस चुभन की कोई ताबीर नहीं होती

ये अन्जान शहर के अन्जान राहियों की
उम्र गुज़र जाये मगर मंजिल नहीं होती
जिस्म के लिफ़ाफ़े लाख खुल जाएँ
फटने वालों की कोई तकदीर नहीं होती

मन के चौबारे कितने ही खुले रखो
हर दरवाज़े पर दस्तक नहीं होती

8 comments:

DR. ANWER JAMAL said...

रात की रानी महकती है जिस आँगन में
भौंरे पहुँचते ज़रूर हैं उस आँगन में

http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/05/andha-qanoon.html

Anjana Dayal de Prewitt (Gudia) said...

bahut badiya, Vandan ji!

दर्शन कौर धनोय said...

हर दरवाजे पर दस्तक नही होती '
क्या बात है ...गजब !

सदा said...

बहुत खूब कहा है ।

वीना श्रीवास्तव said...

सुबह ही तो नई रोशनी और नई किरण लेकर आती है...

prerna argal said...

ये अन्जान शहर के अन्जान राहियों की
उम्र गुज़र जाये मगर मंजिल नहीं होती
जिस्म के लिफ़ाफ़े लाख खुल जाएँ
फटने वालों की कोई तकदीर नहीं होती bahut hi achci rachanaa badhaai aapko.

Kailash Sharma said...

मन के चौबारे कितने ही खुले रखो
हर दरवाज़े पर दस्तक नहीं होती..

...बहुत खूब! कमाल की प्रस्तुति..

डा श्याम गुप्त said...

अच्छी गज़ल है, पर.--कुछ तथ्य-भ्रम की सी स्थिति है...

----दस्तक तो एक बार हर द्वारे पर होती है ..जो वक्त को लपकने में चूक जाता है, वह चूक जाता है...
--फ़टने वाले की तकदीर ..फ़टना ही होती है...

--सुबह ही तो नई रोशनी और नई किरण लेकर आती है.