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मुशायरा::: नॉन-स्टॉप

Tuesday, May 31, 2011

भविष्यवाणी Anwer Jamal की


नूर की एक किरन अंधेरे पर भारी होगी
रात उनकी सही लेकिन सुबह हमारी होगी

Sunday, May 29, 2011

गज़ल...आप आगये...डा श्याम गुप्त...

दर्दे दिल भागये,
जख्म रास आगये ।

तुमने पुकारा नहीं,
 हमीं पास आगये ।

कोई तो बात करो,
मौसमे इश्क आगये ।

जब भी ख्वाब आये,
तेरे अक्स आगये ।

इबादत की खुदा की ,
दिल में आप आगये ॥

श्री ज़ाकिर अली ‘रजनीश‘ जी की एक पोस्ट के संदर्भ में

मियां शुक्र करो कि कुछ तो मिला
आसानी से मिला या मुश्किलों से मिला

तवायफ़ों को मुल्ला पंडित क्या जानें
ठीक मिला पता जो काफ़िरों से मिला

भाई कलिमा पढ़कर संवार ले ज़िंदगी
क्या आज तक सिर्फ़ जाहिलों से मिला

फ़िरक़ाबंदी छोड़कर बन जा इंसान तू
अपने दिल को चल हमारे दिलों से मिला

किसी से मत करना ‘अनवर‘ का गिला
कि लगे मैं कहां संगदिलों से मिला

यह ग़ज़ल टाइप में से कुछ है।
क्या है ?
इसे तो बस जानने वाले जानें या फिर ख़ुदा जाने।
हमें तो यह सब मजबूरी में कहना पड़ा एक पोस्ट पर।
कल से श्री ज़ाकिर अली जी एक पोस्ट ब्लॉग जगत में इतना नचाए फिर रहे हैं कि वह हॉट हो गई।


मौलवी और पंडित घुमाते रहे, उसका पूरा पता काफिरों से मिला।



अब भला हमें कहां इतनी सहार ?
कि हमारे रहते कोई अच्छे मौलवी और अच्छे पंडित जी को बुरा कहता फिरे और वह भी नास्तिक-अधर्मी के लिए। हमने तुरंत जो मन में आया, लिख डाला इस पोस्ट के कमेंट में। अब आप बताएं कि हमने क्या ग़लत कहा ?
श्री अशोक रावत जी का कलाम भी इस बहाने यहां पेश किया जाता है, जिस पर यह कमेंट किया गया।
श्री अशोक रावत 

हाँ मिला तो मगर मुश्किलों से मिला।
आईनों का पता पत्‍थरों से मिला।

दोस्‍ती आ गई आज किस मोड़ पर,
दोस्‍तों का पता दुश्‍मनों से मिला।

मौलवी और पंडित घुमाते रहे,
उसका पूरा पता काफिरों से मिला।

ढ़ूँढ़ते- ढ़ूँढ़ते थक गया अंत में,
मुंसिफों का पता कातिलों से मिला।

जाने क्‍या लिख दिया उसने तकदीर में,
मुझको जो भी मिला मुश्किलों से मिला।

अड़चनें ही मेरी रहनुमा बन गईं,
मंजिलों का पता ठोकरों से मिला।
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/05/dr-anwer-jamal.html

Saturday, May 28, 2011

सरे-ज़माना मैंने अब सर कटाया है: Saleem Khan


 

ये कैसा हादसा हमें पेश आया हैं
सिर पे सलीब रोज़ हमने उठाया है

ब चिराग़-ओ-शम्स मयस्सर न हुआ
अपने दिल को रौशनी के लिए जलाया हैं

शियाना मुझे एक मयस्सर न हो सका
ऐ खुदा तुने ये जहाँ किस तरह बनाया है

मैं क्या करूँगा ज़माने की ख्वाहिशें
जबसे तुने मुझको रोना सिखाया है 
  
तेरे ही बदौलत सही मुझे ये नसीब है
सरे-ज़माना मैंने अब सर कटाया है
  
क़िस्मत की दास्ताँ कुछ इस तरह हुई
ग़मख्वार ने ही 'सलीम' हर ग़म बढाया है
http://zindagikiaarzoo.blogspot.com

शेरो शायरी की महफ़िल किरतपुर में

आज के ज़माने में हर किसी को जल्दी है
वर्ना शहर में इतने हादसे नहीं होते
-नाज़िम अशरफ़ किरतपुरी

मुस्कुराने की बात करते हो
किस ज़माने की बात करते हो
-रामौतार जमाल

हो जिसका ताल्लुक़ तेरी इबादत से
मेरी रगों में उतर वो लहू या रब
-नाज़िम अशरफ़

रात गई हर बात को लेकर
दिन निकला जज़्बात को लेकर
-आसिफ़ अंदाज़

फ़ुर्सत के लम्हात कहाँ
पहले से हालात कहाँ
-मौलवी क़ादिर

ख़ुद नहीं खाते हैं खिला देते हैं हम मेहमान को
हम फ़क़ीरों के घरों की मेज़बानी और है
-गौहर किरतपुरी

तेज़ रफ़्तार रहरौ जो आए नज़र
ख़ुद को महफ़ूज़ कर रास्ता छोड़ दे
-नासिर किरतपुरी

हरामो-नेक को तो आप जानें
शिकम तो रोटियाँ पहचानता है
-नज़र किरतपुरी

कल रात मेहमान शायर उमर बछरायूंनी के सम्मान में अंजुमने दर्से अदब की जानिब से एक नशिस्त आयोजित की गई। उसी के कुछ चुनिंदा शेर अर्ज़ हैं ।

आप की चाहत अल्लाह अल्लाह
रोज़ नए बोहतान मिले हैं
-उमर बछरायूंनी

शब्दार्थ
बोहतान-इल्ज़ाम , रहरौ-पथिक

सरहद पे बरक़रार रहे अम्न ऐ ख़ुदा ! - Asad Raza Naqvi





ऐसे भी इस जहान में कुछ ख़रदिमाग़ हैं
जो जंग चाहते हैं ‘असद‘ हिंदो-पाक में
सरहद पे बरक़रार रहे अम्न ऐ ख़ुदा !
स्कीम ऐसे लोगों की मिल जाए ख़ाक में 
   
   -असद रज़ा

शब्दार्थ 
ख़र-गधा, ख़रदिमाग़-मूर्ख

Friday, May 27, 2011

श्री तुफ़ैल चतुर्वेदी जी की शायरी



हर एक बौना मेरे क़द को नापता है यहाँ|
मैं सारे शहर से उलझूँ मेरे इलाही क्या||
---------------------
 श्री तुफ़ैल चतुर्वेदी जी

अच्छे आदमियों के अच्छे विचार ख़ुशी देते हैं। श्री तुफ़ैल चतुर्वेदी जी के बारे में जानकर भी खु़शी हुई और वातायन ब्लॉग पर जाकर भी।
कुछ चुनिंदा शेर जो मुझे पसंद आए, आप भी देखिए,
धन्यवाद ।
मुकम्मल देखने के लिए जाएं आप वातायन पर,
जिसके लिए हमें निमंत्रित किया था श्री नवीन जी ने।
उनका भी धन्यवाद।


मेरे पैरों में चुभ जाएंगे लेकिन|
इस रस्ते से काँटे कम हो जाएंगे||
-----------------
हम तो समझे थे कि अब अश्क़ों की किश्तें चुक गईं|
रात इक तस्वीर ने फिर से तक़ाज़ा कर दिया||
*** 
अच्छा दहेज दे न सका मैं, बस इसलिए|
दुनिया में जितने ऐब थे, बेटी में आ गये||
***
नई बहू से इतनी तबदीली आई|
भाई का भाई से रिश्ता टूट गया||
***
तुम्हारी बात बिलकुल ठीक थी बस|
तुम्हें लहज़ा बदलना चाहिए था||
----------

खुदा ....नज़्म..डा श्याम गुप्त .....

न तुम ही तुम हो दुनिया  में,
न हम ही हम हैं इस जग में |
हमीं हैं इसलिए तुम हो,
हो तुम भी इसलिए हम हैं ||


खुदा ने ये खलक सारा,
बनाया है , बसाया है  |
खुदा है इसलिए तुम हो,
खुदा है इसलिए हम हैं ||


रहें मिलकर के हम तुम सब,
खुदा की ऐसी मर्जी थी  |
खुदा तुममें भी हममें भी,
खुदा सबमें समाया है ||


न मंदिर में न मस्जिद में,
न गिरिजा, घर खुदा का है |
खुदा को खुद में ही ढूंढें ,
खुदा हम में नुमांया है ||


खुदी को श्याम 'तू करले,
बुलंद इतना, खुदा कहदे |
मेरी सारी खुदाई ही ,
मांगले आज तू मुझसे ||


खुदी है आईना तेरा,
उसी में खुदा बसता है |
खुदा ने इसलिए ही तो,
खुदा का नाम पाया है ||


Thursday, May 26, 2011

इश्क़ की गलियों से अब जैसे आवारगी चली गयी...Saleem Khan


तुम चली गयीं तो जैसे रौशनी चली गयी
ज़िन्दा होते हुए भी जैसे ज़िन्दगी चली गयी

मैं उदास हूँ यहाँ और ग़मज़दा हो तुम वहाँ
ग़मों की तल्खियों में जैसे हर ख़ुशी चली गयी

महफ़िल भी है जवाँ और जाम भी छलक रहे
प्यास अब रही नहीं जैसे तिशनगी चली गयी

दुश्मनान-ए-इश्क़ भी खुश हैं मुझको देखकर
वो समझते है मुझमें अब दीवानगी चली गयी

तुम जो थी मेरे क़रीब तो क्या न था यहाँ 'सलीम'
इश्क़ की गलियों से अब जैसे आवारगी चली गयी

कथित राष्ट्रवादी

ये साध्वी,स्वामी को क्या सीखा दिया
फोड़तें हैं वह बम हिंदुस्तान में ।
किस तरह निपटेँगी अब इनसे हकूमत
कथित राष्ट्रवादी शामिल है इस काम में ।
....................................

'माँ' The Miracle Of God


कुछ दिन पहले हमने एक नज़्म 'प्यारी माँ' पर पेश की थी . मुशायरे में आने वाले कुछ लोगों की नज़र में वह नहीं आई होगी , इसलिए उसे किस्तवार यहाँ पेश किया जा रहा है. शायरी महज़ दिल बहलाने का साधन नहीं होती बल्कि एक संदेश भी देती है और हमें अँधेरे से उजाले में भी लाती है , जिसके लिए हम प्राय: दुआ और प्रार्थना किया करते हैं .

मौत की आग़ोश में जब थक के सो जाती है माँ
तब कहीं जाकर ‘रज़ा‘ थोड़ा सुकूं पाती है माँ

फ़िक्र में बच्चे की कुछ इस तरह घुल जाती है माँ
नौजवाँ होते हुए बूढ़ी नज़र आती है माँ

रूह के रिश्तों की गहराईयाँ तो देखिए
चोट लगती है हमारे और चिल्लाती है माँ

ओढ़ती है हसरतों का खुद तो बोसीदा कफ़न
चाहतों का पैरहन बच्चे को पहनाती है माँ

एक एक हसरत को अपने अज़्मो इस्तक़लाल से
आँसुओं से गुस्ल देकर खुद ही दफ़नाती है माँ

भूखा रहने ही नहीं देती यतीमों को कभी
जाने किस किस से, कहाँ से माँग कर लाती है माँ

हड्डियों का रस पिला कर अपने दिल के चैन को
कितनी ही रातों में ख़ाली पेट सो जाती है माँ

जाने कितनी बर्फ़ सी रातों में ऐसा भी हुआ
बच्चा तो छाती पे है गीले में सो जाती है माँ

Wednesday, May 25, 2011

कहें कैसे कि वो ''जिगर का टुकड़ा है '.

हर तरफ़ भेड़ियों ने घेरा है
मेरी हस्ती का मुझ पे पहरा है


मौत का खौफ उसे होता ही नहीं ;
जो बहुत हादसों से गुजरा है .

सुना रही थी वो दर्द अपना रोते-रोते
मगर दुनिया की नजर में वो एक मुजरा है .

परायों की बेरुखी के परवाह है किसे ?
यहाँ तो अपनों की बेवफाई का खतरा है .

जिन्दगी भर समझता रहा खुद को दरिया ;
आखिरी साँस में समझा कि तू एक कतरा है .

जलील करके हमें घर से निकालाजिसने 
कहें कैसे कि वो ''जिगर का टुकड़ा है '.

सच को सच कहने का हौसला न रहा ;
कैसी मजबूरियों ने आकर हमें जकड़ा है . 
                                             शिखा कौशिक 

क्यों हुआ ईमान नदारद ?


वो रोज़ ही पूजा के लिए जाते हैं मंदिर
मंदिर से मगर मन के है भगवान नदारद
तादाद में बढ़ने लगे हैं हर जा पे नमाज़ी
सज्दों से मगर क्यों हुआ ईमान नदारद 
  
-असद रज़ा


शब्दार्थ 
जा-जगह
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Tuesday, May 24, 2011

जाओ मुझे नहीं करनी तुमसे कोई बात...


लिख डाला है नाम तुम्हारा पन्नो पर ,
रो पड़ी तो मिट जायेगी मेरी झूठी आस,

जाओ मुझे नहीं करनी तुमसे कोई बात,

छू जाते हो क्यूँ अहसास बनकर ,
किसी दिन जलकर बन जयुंगी मैं राख ,

जाओ मुझे नहीं करनी तुमसे कोई बात,

कतरा कतरा यूँही बिखरती रही अगर मैं,
तो रह जयुंगी इक दिन मैं बन केवल लाश ,

जाओ मुझे नहीं करनी तुमसे कोई बात,

मिलते नहीं हो खयालो में भी ठीक से,
दे जाते हो आधी अधूरी प्यास,

जाओ मुझे नहीं करनी तुमसे कोई बात,

कितना सताते हो आ आ के ख्वाबो में,
क्यूँ दे जाते हो टूटी  हुई सी इक आस,

जाओ मुझे नहीं करनी तुमसे कोई बात,

क्यूँ जलाते हो उमीदो के दिए ,
लग जाती हाई मेरी सुखी चौखट पर आग,

जाओ मुझे नहीं करनी तुमसे कोई बात.

[नीलम]

आहे मज़लूम

देर ही से सही मगर इक दिन
आहे मज़लूम असर दिखाती है
सामने जिसके हुक्मरानोँ की
हुक्मरानी भी हार जाती है ।
..................................
हलीम साबिर

Monday, May 23, 2011

सियासत भी करता है दिल्ली का मौसम

कभी है भयानक , कभी है सुहाना
हर इक पल बदलता है दिल्ली का मौसम
'असद' उसके अंदाज़ नेताओं जैसे
सियासत भी करता है दिल्ली का मौसम

-असद रज़ा

Sunday, May 22, 2011

अलग रहने के बना लिए बहाने...Saleem Khan


दूर जाके मुझसे बना लिए ठिकाने

अलग रहने के बना लिए बहाने

बिछड़ के तुमने बहुत अश्क़ हैं दिए
उन्हीं अश्क़ से हमने बना लिए फ़साने

दौलत पे अपने तुम्हें रश्क है बहुत
हमने मुफ़लिसी को बना लिए ख़जाने

महलों में रहने वाली तुम खुश रहो सदा
हमने तो खंडहर में अब बना लिए ठिकाने



शहनाई बज उठी जब लाश पे 'सलीम'
मैंने उन्ही से अब अपने बना लिए तराने

मोम का सा मिज़ाज है मेरा / मुझ पे इल्ज़ाम है कि पत्थर हूँ -'Anwer'


आरज़ू ए सहर का पैकर हूँ
शाम ए ग़म का उदास मंज़र हूँ

मोम का सा मिज़ाज है मेरा
मुझ पे इल्ज़ाम है कि पत्थर हूँ

हैं लहू रंग जिसके शामो-सहर
मैं उसी अहद का मुक़द्दर हूँ

एक मुद्दत से अपने घर में ही
ऐसा लगता है जैसे बेघर हूँ

मुझसे तारीकियों न उलझा करो
इल्म तुमको नहीं मैं 'अनवर' हूँ

शब्दार्थ
आरज़ू ए सहर-सुबह की ख़्वाहिश , शाम ए ग़म-ग़म की शाम , लहू रंग-रक्त रंजित , शामो सहर-शाम और सुबह ,अहद-युग
तारीकियों-अंधेरों , अनवर-सर्वाधिक प्रकाशमान

Saturday, May 21, 2011

न्याय और शांति की आड़ में पश्चिमी देशों की संयुक्त साज़िश - Asad Raza Naqvi

मग़रिबी मुल्कों के दाँव की ये साज़िश है
अहले मशरिक़ को आपस ही में लड़ाया जाए
ख़ुद तो महफ़ूज़ रहें, एशिया अफ़्रीक़ा को
तीसरी जंग का मैदान बनाया जाए

-असद रज़ा
asadrnaqvi@yahoo.co.in
शब्दार्थ
मग़रिबी मुल्कों - पश्चिमी देशों
अहले मशरिक़ - पूर्वी देशों के निवासी
महफ़ूज़ - सुरक्षित

Friday, May 20, 2011


ज़ख़ीरा : उर्दू शायरी के शौक़ीन साहिबान के लिए एक साइट
उर्दू शायरी के शौक़ीन साहिबान के लिए आज हम एक ऐसी साइट का पता दे रहे हैं, जहां ग़ज़लों का एक बड़ा ज़ख़ीरा मौजूद है और साइट का नाम भी ज़ख़ीरा ही मौजूद है।
लीजिए एन्जॉय कीजिए यह साइट।

आये थे तेरे शहर में - Sadhana Vaid



आये थे तेरे शहर में मेहमान की तरह,
लौटे हैं तेरे शहर से गुमनाम की तरह !

सोचा था हर एक फूल से बातें करेंगे हम,
हर फूल था हमको तेरे हमनाम की तरह !

हर शख्स के चहरे में तुझे ढूँढते थे हम ,
वो हमनवां छिपा था क्यों बेनाम की तरह !

हर रहगुज़र पे चलते रहे इस उम्मीद पे,
यह तो चलेगी साथ में हमराह की तरह !

हर फूल था खामोश, हर एक शख्स अजनबी,
भटका किये हर राह पर नाबाद की तरह !

अब सोचते हैं क्यों थी तेरी आरजू हमें,
जब तूने भुलाया था बुरे ख्वाब की तरह !

तू खुश रहे अपने फलक में आफताब बन,
हम भी सुकूँ से हैं ज़मीं पे ख़ाक की तरह !


साधना वैद

Thursday, May 19, 2011

आरज़ू... नज़्म....डा श्याम गुप्त...

हमने चाहा कि आज,  खुद से मुलाक़ात करें |
भूल जाएँ आपको बस खुद से ही कुछ बात करें |

देख हमको आईने में, 
 अक्स ने ऐसे कहा |
आप अब कहाँ आप हैं,
उनके हुए जब आप हैं |

आपकी सूरत ही दिल-
 के, आईने में यूं ढली |
आप तो  हैं आप ही,
 और- होगये हम आप हैं |

हम भला तुम से मुखातिव हों या खुद से रूबरू ,
आईने में तुम हो,  मैं हूँ,  या है मेरी आरज़ू ||                 


Wednesday, May 18, 2011

बेटी को बचाएं, ख़ुद को बचाएं

मानने वाले हैं वो शैताँ के
नूर के बदले नार लेते हैं
कैसे इंसान हैं जो बेटी को
रहम ए मादर में मार देते हैं

असद रज़ा
asadrnaqvi@yahoo.co.in
रहम ए मादर - माँ का गर्भ

Monday, May 16, 2011

कुछ हट के सोचिये --ग़ज़ल ...डा श्याम गुप्त...

करना है कुछ बड़ा तो कुछ हट के सोचिये |
क्या कहेगा कोई हमें , बस यह न सोचिये 

हैं  और भी गम  ज़माने में  जीने  के लिए,
हम ही हैं बस इक ग़मज़दा खुद यह न सोचिये |

औरों ने जब किया नहीं तो हम भी क्यों करें ,
है बात व्यर्थ की सदा अब यह न सोचिये |

तप योग ध्यान साधना, वंदन भजन पूजन ,
दुष्कर हैं, करें कैसे, कब, यह  न सोचिये  |

हिम्मत करे उसका ही साथ देता है खुदा,
अपना नहीं है भाग्य 'श्याम यह न सोचिये ||

महंगाई का इलाज सादगी है फ़िलहाल तो ...Asad Raza Naqvi

पेट्रोल महंगा कर दिया लेकर हमारे वोट
सरकार के हुज़ूर ना शिकवा करेंगे हम
बाइक को और कार को अब घर पे छोड़कर
सड़कों पे अपने मुल्क की पैदल चलेंगे हम

असद रज़ा
asadrnaqvi@yahoo.co.in

Sunday, May 15, 2011

मन के चौबारे कितने ही खुले रखो

सिर्फ रात ही बिस्तर पर पड़ी सिसकती है
सुबह की तो कोई तकदीर ही नहीं होती

काँटों के शहर में जब फूल ही पलते हैं
उस चुभन की कोई ताबीर नहीं होती

ये अन्जान शहर के अन्जान राहियों की
उम्र गुज़र जाये मगर मंजिल नहीं होती
जिस्म के लिफ़ाफ़े लाख खुल जाएँ
फटने वालों की कोई तकदीर नहीं होती

मन के चौबारे कितने ही खुले रखो
हर दरवाज़े पर दस्तक नहीं होती

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए -ग़ज़ल Dushyant Kumar

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार परदों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गांव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

-दुष्यंत कुमार
(1 सितंबर 1933 - 30 दिसंबर 1975)

Saturday, May 14, 2011

सुरभि...नज़्म..डा श्याम गुप्त...

तुम तो खुशबू हो फिजाओं में बिखर जाओगे ,
मैं तो वो फूल हूँ अंजाम है  मुरझा  जाना ||

मैं तो इक प्यास हूँ तुम कैसे समझ पाओगे,
बन के अहसास मेरे सीने में समाते जाना |

तुम तो झोंका हो हवाओं में लहर जाओगे,
टूटा पत्ता हूँ,   मुझे  दूर है  उड़ते  जाना |

बन के सौंधी सी महक, माटी को  महकाओगे,
मैं तो बरखा हूँ मुझे माटी में   है मिल जाना |

तुम तो बादल हो ज़माने में बरस जाते हो,
मैं हूँ बिजली मेरा अंजाम, तड़प गिर जाना |

तुम तो सागर हो ज़माना है तेरे कदमों में ,
मैं वो सरिता हूँ,  मुझे दूर है बहते जाना  |

तुम तो सहरा हो, ज़माना है तेरी नज़रों में,
सहरा की बदली हूँ, अंजाम है उड़ते जाना |

तुमने है ठीक  कहा,  मैं तो इक सहरा ठहरा ,
शुष्क और तप्त सी रेत का दरिया ठहरा |

मैं तो  सहरा हूँ ,  अंजाम है  तपते जाना,
तुम जो बदली हो तो इस दिल पे बरस के  जाना |

सहरा के सीने में भी मरुद्यान बसे होते  हैं, 
बन के हरियाली छटा उसमें ही तुम बस जाना |

तुमने है ठीक कहा, मैं तो हूँ सागर गहरा,
मेरा अंजाम किनारों से है बंध कर रहना |

तुम ये करना, मेरे दिल से मिलते  रहना ,
बन के दरिया मेरे सीने में समाते जाना |

हम जो बन खुशबू , फिजाओं में बिखर पायेंगे,
फूल हो तुम तो ज़माने में सुरभि बिखराना ||



सहरा =रेगिस्तान ,   फिजां = मौसम ,  अंजाम = परिणाम 



      


Friday, May 13, 2011

दिल से उनकी मोहब्बत के सिवा सब मिट जाए


अब उनका हर ख़त
जला देता हूँ
उसमें लिखे हर लफ्ज़ को
ज़हन में लिख देता हूँ
मोहब्बत के हर इज़हार को
दिल में ज़ज्ब करता हूँ
उनके अक्स को
खुद के चेहरे में मिलाता हूँ 
उम्मीद में रहता हूँ
जब भी शीशा देखूं
निरंतर वो ही नज़र आयें
ख्यालों में
उनके खतों में लिखे
लफ्ज़ ही रह जाएँ
दिल से
उनकी मोहब्बत के
सिवा सब मिट जाए
12-05-2011
845-52-05-11

Thursday, May 12, 2011

अब रोशनी में भी कुछ नज़र नहीं आता



अब रोशनी में भी
कुछ नज़र नहीं आता
सारा जहां अँधेरे से
ढका लगता
वो रुखसत जहाँ से  हुए
खामोश मेरी दुनिया को
कर गए
हवा का रुख अचानक
बदल गया
उड़ते उड़ते ज़मीं पर
आ गया
निरंतर हंसता गाता चेहरा
अश्कों से तर बतर
हो गया
हर लम्हा उनका
अहदे-वफ़ा याद आया
उनकी याद ने दिल छलनी
कर दिया
जीने का मकसद नेस्तनाबूद 
कर दिया
12-05-2011
844-51-05-11
 (अहदे-वफ़ा= वफ़ादारी का प्रण)