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मुशायरा::: नॉन-स्टॉप

Saturday, April 30, 2011

खुद को तसल्ली देता रहा


दिन में  खुद को मसरूफ रखा
रातें काटी तेरी याद में अक्सर
दिखाने को हंसता रहा
दिल में हर वक़्त रोता रहा
कमज़ोर ना समझे कोई
बेमन से ज़िन्दगी जीता रहा
एक भी ना मिला
जो हाल-ऐ-दिल पूंछता  
हर शख्श दुखड़े अपने रोता
कैसे रोते को और रुलाता ?
हाल-ऐ-दिल जो अपना सुनाता
निरंतर
खुद को तसल्ली देता रहा
तुम्हारा इंतज़ार करता रहा
30-04-2011
792-212-04-11

कांपती इंसानियत

हर   तरफ   मायूसियाँ   ,चेहरों  पर उदासियाँ ,
थी जहाँ पर महफ़िलें ;है वहां तन्हाईयाँ !

कुदरती इन जलजलों से कांपती इंसानियत ,
उड़ गयी सबकी हंसी ;बस गम की हैं गहराइयाँ !

क्यूँ हुआ ऐसा ;इसे क्या  रोक हम  न सकते थे ?
बस इसी उलझन में बीत जाती ज़िन्दगानियाँ !

है ये कैसी बेबसी अपने बिछड़ गए सभी 
बुरा हो वक़्त ,साथ छोड़ जाती हैं परछाइयाँ !

जो लहर बन कर कहर छीन लेती ज़िन्दगी 
उस लहर को मौत कहने में नहीं बुराइयाँ !

हे प्रभु कैसे कठोर बन गए तुम इस समय ?
क्या तुम्हे चिंता नहीं मिल जाएँगी रुसवाइयां  !

शिखा कौशिक 


कुछ कतये... डा श्याम गुप्त....


१-
वो तरसे हुए जिस्म करीब आये ,
गुलमोहर के फूल खिलखिलाए |
नगमे स्वयं ही सदायें  देने लगे,
मीठी गुदाज़ रात मुस्कुराए || 
२-
ज़िंदगी इक दर्द का समंदर है,
जाने क्या क्या इसके अन्दर है |
कभी तूफाँ समेटे डराती है,
कभी एक पाकीज़ा मंज़र है ||
३-
खामोश पिघलती हैं शमाएँ ,
किस को कहें क्या बताएं |
ख़ाक हो चुका जब परवाना,
दर्दे-दिल किसको सुनाएँ ||
४-
क्या वह पुरसुकूं लम्हा कभी आयेगा ,
आयेगा तो,  शायद तभी आयेगा |
वक्त कह चुका होगा अपनी दास्ताँ,
श्याम वो वेवक्त वक्त आयेगा ||

दिलों में ख़ारे तास्सुब हैं उनके फूल नहीं


यह क़त्लो खून यह आतिशज़नी, यह लूट खसोट
यह सोची समझी हुई साज़िशें हैं भूल नहीं
फ़सादियों से तवक्क़ो फुज़ूल अम्न की है
दिलों में ख़ारे तास्सुब हैं उनके फूल नहीं
     -असद रज़ा
asadrnaqvi@yahoo.co.in

Friday, April 29, 2011

खुशामद भी जरूरी है

खुशामद की नजारत दुनिया में सभी करते हैं

जो कहते हैं नहीं करते वो झूठ बोला करते हैं l

कुछ लोग पीठ पीछे तो बद्दुआ दिया करते हैं

फिर जरूरत होने पे खुशामद किया करते हैं l

तौहीन करके अक्सर हँसते हैं लोग जिनपर

खुदगर्जी में उनके आगे नाक रगड़ा करते हैं l

रखते हैं बड़ा अपनापन खुशामद करने वाले

खुशी के मौकों पर वो दिल में जला करते हैं l

ऐसे मतलब परस्तों पर हँसती है खूब दुनिया

ऐसे अहसान फरोशों से लोग बचा करते हैं l

पर आपस में प्यार हो और झगड़ा हो जाये

तब भी तो मनाने में खुशामद ही करते हैं l

तो तरीके भी होते हैं कितने ही खुशामद के

बख्त आने पर ही उनके जलवे दिखा करते हैं l

खुशामद की नजाफत में हर कोई सलामत हो

जो कहते हैं नहीं करते वो झूठ बोला करते हैं l

- शन्नो अग्रवाल

आशनायी है...गज़ल...ड श्याम गुप्त....

यूं तो खारों से ही अपनी आशनाई है |
आंधियां भी मगर हम को रास आयीं हैं |

मुश्किलों का है सफ़र जीना यहाँ ऐ दिल ,
हर मुश्किल लेकर नयी इक राह आयी है |

तू न घबराना गर राह में पत्थर भी मिलें ,
पत्थरों में भी उसी रब की लौ समाई है |

डूब कर तरिये इसमें है अभी सागर गहरा ,
कौन जाने न रहे कल को ये गहराई है |

आशिकी उससे करो श्याम ' हो दुश्मन तेरा,
दोस्त,  दुश्मन को बनाए वो आशनाई है ||

              


Thursday, April 28, 2011

तुझे फुर्सत नहीं

तुझे फुर्सत नहीं है मेरे लिये

मेरी दुनिया में भी अँधेरे हैं l


तेरे ख्यालों में मैं हूँ या नहीं

पर तेरे ख्याल मुझको घेरे हैं

तेरा दीदार भी कभी हो जाये

इस उम्मीद में सजदे मेरे हैं l


तेरी मेहरबानियाँ हुईं हैं औरों पे

तेरे करिश्मों से हम हैरत में हैं

है इंतज़ार हमें तेरे फरमानों का

तेरा नूर तेरी तकवियत में है l


ये सारी कायनात है तेरे बूते पे

पर जीस्त में रंगे-गुलिस्तां नहीं हैं

तेरे सिवा कोई भी नहीं अपना

गमे-हयात में कोई अहबाब नहीं हैं l


मेरी साँसों में है इबादत तेरी

अपने अश्कों के फूल बिखेरे हैं

तेरी चाहत का मुझे पता नहीं

मेरी जीस्त के तुझसे ही सबेरे हैं l


तुझे फुर्सत नहीं है मेरे लिये

मेरी दुनिया में भी अँधेरे है l


-शन्नो अग्रवाल


मंज़िल का कुछ सुराग़ नहीं Shayri


इंसानियत को क़त्ल तो खुद कर रहे हैं लोग
इल्ज़ाम दूसरों पे मगर धर रहे हैं लोग
मंज़िल का कुछ सुराग़ नहीं, क़ाफ़िला नहीं
तारीकियों में फिर भी सफ़र कर रहे हैं लोग

          -असद रज़ा

यह बंद आज उर्दू अख़बार राष्ट्रीय सहारा में पढ़ा और अच्छा लगा तो इसे आपके लिए यहां ले आया। इसी कॉलम के ऊपर कुछ नसीहतें भी लिखी हैं। ये भी मुफ़ीद मालूम हुईं। इन्हें आप अपनी कविता के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाएं तो अच्छा रहेगा।
1. एक अंधा अगर दूसरे अंधे को रास्ता बताएगा तो दोनों ग़ार में गिरेंगे।
2. तीन चीज़ों से आदमी को दुनिया में मुश्किल पेश आती है, बीमारी, तवंगरी (समृद्धि) और बेख़ौफ़ी।
3. तीन चीज़ों से ज़िंदगी आराम से गुज़रती है, सेहत, तवंगरी और बेख़ौफ़ी।
4. खुशामद करने वाला और उसे सुनकर ख़ामोश रहने वाला, दोनों कमीने हैं और दोनों एक दूसरे को धोखा देते हैं।

Wednesday, April 27, 2011

जो बिछड़ जाते हैं ..


जो  बिछड़  जाते  हैं  ..मेरी आवाज में 
जो बिछड़ जाते हैं हमेशा के लिए 
छोड़ जाते हैं बस यादों के दिए 
जिनकी रौशनी में उनका साथ पाते हैं 
वो नहीं आयेंगे ये भूल जाते हैं .

जिन्दगी कितने काँटों से है भरी 
हर दिन कर रही हम सब से मसखरी 
जो चला था घर से मुस्कुराकर  के अभी 
एक हादसा हुआ और आया न कभी 
साथी राहों में ऐसे ही छूट जाते हैं 
वो नहीं आयेंगे ये भूल जाते हैं .

रोज सुबह होती और शाम ढलती है 
जिन्दगी की यू ही रफ़्तार चलती है 
वो सुबह और शाम कितनी जालिम है 
जब किसी अपने की साँस थमती है 
हम ग़मों की आग में जिन्दा जल जाते हैं .
वो नहीं आयेंगे ये भूल जाते हैं .
              शिखा कौशिक 

Tuesday, April 26, 2011

एक त्रिपदा गज़ल....डा श्याम गुप्त.....

यादों के ज़जीरे उग आये हैं ,
मन के समंदर में ;
कश्ती कहाँ कहां लेजायें हम |

दर्दे-दिल उभर आये हैं जख्म बने ,
तन की वादियों में;
मरहमे- इश्क कहाँ तक लगाएं हम |

तनहाई के  मंज़र बिछ गए हैं ,
मखमली दूब बनकर ;
बहारे हुश्न कहाँ तक लायें हम |

रोशनी की लौ कोइ दिखती नहीं ,
इस अमां की रात में ;
सदायें कहाँ तक बिखराएँ हम |

वस्ल की उम्मीद ही न रही 'श्याम,
पयामे इश्क सुनकर;
दुआएं कहाँ तक अब गायें हम ||

             ----२६-४-११....६.४८  Pm

मीना कुमारी जी एक बार फिर

 मेरी उदासियों के हिस्सेदार,
मेरे अधूरेपन का दोस्त,
मेरे अकेलेपन
तमाम जख्म जो तेरे,
हैं मेरे दर्द तमाम,
तेरी कराह का रिश्ता है मेरी आहों में .

तूने भी हमको देखा,
हमने भी तुझको देखा,
तू दिल ही हार गुज़रा 
हम जान हार गुज़रे.

जब जुल्फ की कालिख में 
घुल जाये कोई राही
बदनाम सही लेकिन
गुमनाम नहीं  होता.

आगाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता
जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता.

शायरी -मीना कुमारी जी की कलम से.
प्रस्तुति-शालिनी कौशिक एडवोकेट 

Monday, April 25, 2011

तटबंध होना चाहिये.....डा श्याम गुप्त...



        तटबंध होना चाहिये.........

साहित्य सत्यं शिवं सुन्दर भाव होना चहिये ।
साहित्य शुचि शुभ ग्यान पारावार होना चाहिये ।

समाचारों के लिये अखबार छपते रोज़ ही,
साहित्य में सरोकार-समाधान होना चाहिये।

आज हम उतरे हैं इस सागर में कहने को यही,
साहित्य हो या कोई सागर गहन होना चाहिये ।

डूब कर उतरा सके जन जन व मन-मानस जहां,   
भाव सार्थक, अर्थ भी ऋजु -पुष्ट होना चाहिये।

चित्त भी हर्षित रहे, नव-प्रगति भाव रहें यथा,
कला सौन्दर्य भी सुरुचि शुचि सुष्ठु होना चाहिये।

क्लिष्ट शब्दों से सजी, दूरस्थ भाव न अर्थ हों,
कूट भाव न होंसुलभ संप्रेष्य होना चाहिये ।

ललित भाषा, ललित कथ्य, न सत्य-तथ्य परे रहे,
व्याकरण, शुचि-शुद्ध, सौख्य-समर्थ होना चाहिये ।

श्याम , मतलब सिर्फ़ होना शुद्धतावादी नहीं,
बहती दरिया रहे, पर तटबंध होना चाहिये ॥

---२५-४-११.. 05.47 PM

शाख़-ए-आशियाँ छूट गया, एक 'परिंदा' टूट गया.

शाख़-ए-आशियाँ छूट गया, एक 'परिंदा' टूट गया
अपना कहते-कहते क्यूँ, बीच सफ़र में लूट गया ?

ज़िन्दगी भर साथ निभाने का वादा करके
अब क्यूँ मुझसे वो, पल भर में रूठ गया ?

दुनियाँ भर की सैर कराके मेरा हमसफ़र
मंज़िल से पहले अपने ही शहर में छूट गया !

क़िस्मत क्या ऐसी भी होगी, मालूम न था
साहिल से पहले पतवार समंदर में छूट गया !

दिल तक पहुँचते-पहुँचते महबूब का प्यार
क्यूँ ज़ख्म बन कर जिगर में फ़ूट गया ?

आँखों के तीर ठीक निशाने पर लगाकर 'सलीम'
क्यूँ दिल पर निशाना, एक नज़र में चूक गया ?

Sunday, April 24, 2011

ग़ज़लें Ghazal



                             1
वक्त से पहले चराग़ों को जलाते क्यों हो
ऐसी तस्वीर ज़माने को दिखाते क्यों हो

मुझसे मिलने के लिए आते हो आओ लेकिन
मुझको भूले हुए दिन याद दिलाते क्यों हो

ले के उड़ जाएंगी इस को भी हवाएं अबके
अपनी तस्वीर से दीवार सजाते क्यों हो

तुमको यह दुनिया उदासी के सिवा क्या देगी
बेवफ़ा दुनिया से दिल लगाते क्यों हो

भूल बैठे हो क्या पुरखों का आदर्श
अपने ही भाई का तुम खून बहाते क्यों हो

शकील अहमद फरेंक , गोरखपुर
मियां साहब इस्लामिया इंटर कॉलिज
गोरखपुर (उ. प्र.)
........................................
                          2
जो चश्मो लब का ज़िक्र हो नज़ाकतों की बात कर
किसी से छेड़छाड़ है शरारतों की बात कर

हमारे मुन्सिफ़ों ने दी यज़ीदे वक्त को अमां
है बेगुनाह दार पर अदालतों की बात कर

चले हैं मुफ़लिसों के घर वज़ीर वोट मांगने
ग़रीब की फ़क़ीर की सख़ावतों की बात कर

नगर-नगर को लूट कर अमीरे शहर चल दिया
अमानतों का ज़िक्र क्या ख़यानतों की बात कर

हरेक ज़रपरस्त को न ऐसे आईना दिखा
है ‘शाकिर‘ नवाए जंग अमारतों की बात कर

रफ़ीक़ शाकिर
हाजी नगर, अकोट फ़ाइल, अकोला-444003
-----------------------------------

भाई खुशदीप सहगल जी ने हमें नेक नसीहत का एक तोहफ़ा दिया है और उन्होंने अपनी पोस्ट में हमारा नाम भी लिया है। नेकी का बदला नेकी है और अहसान का बदला अहसान के सिवा क्या है ?
कोई आदमी आपको भलाई से याद करे और आपको भली बात कहे, यह चलन पहले तो आम था लेकिन आज की मसरूफ़ ज़िंदगी में यह नायाब है। नेकी और भलाई का बदला नेकी और भलाई से ही दिया जाना चाहिए और पठान किसी का अहसान न तो भूलता है और न ही उसे उतारने में देर ही करता है। लिहाज़ा इन खूबसूरत ग़ज़लों को हम भाई खुशदीप जी की नज़्र करते हैं।
इन लिंक्स पर भी आप नज़र डाल लेंगे तो बंदा आपका शुक्रगुज़ार होगा और साथ ही भाई खुशदीप जी से हमारे मुकालमे का पसमंज़र भी आपके सामने आ जाएगा।
शुक्रिया !
1- अगर किसी को बड़ा ब्लॉगर बनना है तो क्या उसे औरत की अक्ल से सोचना चाहिए ? Hindi Blogging
2- कैसा होता है एक बड़े ब्लॉगर का वैवाहिक जीवन ? Family Life

मां तुझे हम सलाम करते हैं Salam By Asad Raza


आओ कुछ ऐसे काम करते हैं
देस का अपने नाम करते हैं
दुश्मनों को भी राम करते हैं
सर झुका कर सलाम करते हैं 
मां तुझे हम सलाम करते हैं

तेरी ज़ीनत हैं साबिर ओ चिश्ती
शान हैं तेरी गौतम ओ गांधी
मादरे हिन्द अज़्मतों का तेरी
दिल से हम अहतराम करते हैं
मां तुझे हम सलाम करते हैं

राम व रहीम तेरे बच्चे हैं
ज़ात हो कोई धुन के पक्के हैं
कोई हो मज़हब दिल के सच्चे हैं
रस्मे उल्फ़त को आम करते हैं
मां तुझे हम सलाम करते हैं

असद ‘रज़ा
ई, 11@47, हौज़रानी, मालवीय नगर
नई दिल्ली-17

कैसी --कैसी गज़लें --- डा श्याम गुप्त.....

-------कल शाम से आठ घन्टों में किसी ने अपनी रचना नही डाली--सलीम जी की रचना २५-४-११ को शेड्यूल है, तो ज़नाब सद्र साहब की अनुमति से में ही अपनी रचना डाल देता हूं---लीजिये..... झेलिये....
  


          कैसी --कैसी गज़लें --


(पेश है एक -हुश्ने-हज़ारी  गज़ल...--जिसमें सभी शे’र मतले के हों...)

शेर मतले का न हो ,तो कुंवारी ग़ज़ल होती है।
हो काफिया ही जो नहीं ,बेचारी ग़ज़ल होती है।


और भी मतले हों ,हुस्ने तारी ग़ज़ल होती है ,
हर शेर ही मतला हो ,हुश्ने-हजारी ग़ज़ल होती है।


हो रदीफ़ काफिया नहीं ,नाकारी ग़ज़ल होती है,
मकता बगैर हो ग़ज़ल वो मारी ग़ज़ल होती है।


मतला भी ,मक्ता भी , रदीफ़-काफिया भी हो ,
सोच -समझ के, लिख के, सुधारी ग़ज़ल होती है ।


हो बहर में ,सुर ताल लय में ,प्यारी ग़ज़ल होती है ,
सब कुछ हो कायदे में ,वो संवारी ग़ज़ल होती है।


हर शेर एक भाव हो,  वो जारी ग़ज़ल होती है,
हर शेर नया अंदाज़ हो ,वो भारी ग़ज़ल होती है।


मस्ती में कहदें झूम के, गुदाज़कारी ग़ज़ल होती है,
उनसे तो जो कुछ भी कहें ,मनोहारी ग़ज़ल होती है।


जो  वार  दूर तक करे ,  करारी   ग़ज़ल  होती  है,
छलनी हो दिले-आशिक,वो शिकारी ग़ज़ल होती है।


हो दर्दे-दिल की बात,  दिलदारी ग़ज़ल होती है,
मिलने का करें वायदा, मुतदारी ग़ज़ल होती है।


जो उस की राह में कहो ,  इकरारी ग़ज़ल होती है,
कुछ अपना ही अंदाज़ हो,खुद्दारी ग़ज़ल होती है ।


 तू गाता चल  ऐ यार !  कोई   कायदा  न देख ,
अंदाजे-बयाँ हो श्याम’ का,वो न्यारी ग़ज़ल होती है॥

----०९.१० AM 24/4/11...



Saturday, April 23, 2011

गज़ल की गज़ल...२..डा श्याम गुप्त...


शेर मतले का रहे  ,तो ग़ज़ल होती है ।
शेर मक्ते का रहे,  तो ग़ज़ल होती है ।

रदीफ़ और काफिया रहे ,तो ग़ज़ल होती है ,
बहर हो सुर ताल लयहो ,वो ग़ज़ल होती है।

पाँच से ज्यादा हों शेर ,तो ग़ज़ल होती है ,
बात खाशो-आम की हो ,वो ग़ज़ल होती है।

ग़ज़ल की क्या बात यारो ,वो तो ग़ज़ल होती है ,
ग़ज़ल की हो बात जिसमें ,वो ग़ज़ल होती है।

ग़ज़ल कहने का भी इक अंदाजे ख़ास होता है,
कहने का अंदाज़ जुदा हो तो ग़ज़ल होती है।

ग़ज़ल तो बस इक अंदाजे-बयाँ है श्याम ,
श्याम’ तो जो कहदें, वो ग़ज़ल होती है॥

हमारे क़त्ल को कहते हैं ख़ुदकुशी की है Murder

ये अशआर शालिनी कौशिक जी ने अपने एक मज़मून  में पेश किये थे . हमें अच्छे लगे , सो आज उस मज़मून में से सिर्फ ये अशआर पेशे ए ख़िदमत हैं:


"इंसाफ जालिमों की हिमायत में जायेगा,
ये हाल है तो कौन अदालत में जायेगा."

                            -राहत इन्दौरी


"वो हादसा तो हुआ ही नहीं कहीं,
अख़बार की जो शहर में कीमत बढ़ा गया,
सच ये है मेरे क़त्ल में वो भी शरीक था,
जो शख्स मेरी क़ब्र पे चादर चढ़ा गया.

                             -ख़ालिद ज़ाहिद 


"अजीब लोग हैं क्या मुन्सफी की है,
हमारे क़त्ल को कहते हैं ख़ुदकुशी की है."
                                -हफ़ीज़ मेरठी


"टुकड़े-टुकड़े हो गया आइना गिर कर हाथ से,
मेरा चेहरा अनगिनत टुकड़ों में बँटकर रह गया."
                                 -मुज़फ्फर रज़मी

तुम चली गयीं तो जैसे रौशनी चली गयी


तुम चली गयीं तो जैसे रौशनी चली गयी
ज़िन्दा होते हुए भी जैसे ज़िन्दगी चली गयी

मैं उदास हूँ यहाँ और ग़मज़दा हो तुम वहाँ
ग़मों की तल्खियों में जैसे हर ख़ुशी चली गयी

महफ़िल भी है जवाँ और जाम भी छलक रहे
प्यास अब रही नहीं जैसे तिशनगी चली गयी

दुश्मनान-ए-इश्क़ भी खुश हैं मुझको देखकर
वो समझते है मुझमें अब दीवानगी चली गयी

तुम जो थी मेरे क़रीब तो क्या न था यहाँ 'सलीम'
इश्क़ की गलियों से अब जैसे आवारगी चली गयी

मैं खुदा से इतना सा चाहता


निरंतर
फ़रियाद खुदा से
सब करते
कुछ ना कुछ मांगते
उस से
कोई दिल का सुकून
 माँगता
कोई धन दौलत
माँगता
मैं खुदा से इतना सा
चाहता
कभी कुछ ना माँगना पड़े
किसी से 
जब बुलाये पास
अपने
गहरी नींद से ले
जाना मुझे
21-04-2011
725-147-04-11